Book Title: Mahabandho Part 4
Author(s): Bhutbali, Fulchandra Jain Shastri
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 354
________________ ३२६ ५६३. विगलिंदि० - विगलिंदियपज्जते धुविगाणं उ० ज० एग०, उ० संखेंजाणिवाससहस्सा णि । अणु० ज० एग०, उ० बेसम० । तिरिक्खायु० उ० णाणीभंगो | अणु० ज० एग०, उ० पग दिअंतरं । मणुसायु० उ० अणु० ज० ए०, लोकप्रमाण होता है । यही कारण है कि एकेन्द्रियोंमें ध्रुवबन्धवाली प्रकृतियोंके उत्कृष्ट अनुभागबन्धका उत्कृष्ट अन्तर असंख्यात लोकप्रमाण कहा है। इन सबके ध्रुवबन्धवाली प्रकृतियों के अनुकृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर दो समय है, यह स्पष्ट ही उत्कृष्ट अनुभागबन्धका अन्तरकाल ओधके समान कहा है. यह स्पष्ट दी है। इसके अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका उत्कृष्ट अन्तर साधिक बाईस हजार वर्ष कहनेका कारण यह है कि बाईस हजार वर्षकी युवाले किसी पृथिवीकायिकने प्रथम त्रिभाग में तिर्यञ्चायुका अनुत्कृष्ट बन्ध किया। उसके बाद वह बाईस हजार वर्षकी आयुवाला पुनः पृथिवीकायिक हुआ और जब जीवनमें अन्तर्मुहूर्त काल शेष रहा, तब तिर्यश्वायुका अनुत्कृष्ट बन्ध किया, तो इस प्रकार तिर्यञ्चायुके अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका उत्कृष्ट अन्तर साधिक बाईस हजार वर्ष आ जाता है। किन्तु मनुष्यायुके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका अन्तर एक ही भवमें लाना होगा, अत: बाईस हजार वर्ष के त्रिभागको ध्यान में रखकर वह दोनों प्रकारका उत्कृष्ट अन्तर साधिक सात हजार वर्ष कहा है । मात्र सूक्ष्मोंकी दो भवकी आयु मिलाकर और एक भवकी आयु अन्तमुहूर्त ही होती है, अतः इनमें तिर्यवायु और मनुष्यायुके उत्कृष्ट व अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका उत्कृष्ट अन्तर अन्तमुहूर्त कहा है। मनुष्यगतित्रिकके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका उत्कृष्ट अन्तर यह दोनों ही असंख्यात लोकप्रमाण कहा है सो इसका कारण यह है कि इनका अग्निकायिक और वायुकायिक जीवोंमें बन्ध नहीं होता और इनकी काय स्थिति असंख्यात लोकप्रमाण है । मात्र इनके उत्कृष्ट अनुभागबन्धका उत्कृष्ट अन्तरध्रुवबन्धवाली प्रकृतियों के समान भी लाया जा सकता है । बादरोंकी कार्यस्थिति श्रङ्गुलके असंख्यातवें भाग प्रमाण होनेसे इनमें इनके उत्कृष्ट अनुभागबन्धका उत्कृष्ट अन्तर तो उक्त प्रमाण घटित हो जाता है पर अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका उत्कृष्ट अन्तर कर्मस्थिति प्रमाण ही प्राप्त होता है, क्योंकि बादर एकेन्द्रियों में अग्निकायिक और वायुकायिक जीवोंकी कायस्थिति कर्मस्थिति प्रमाण होनेसे इतने अन्तर के बाद इनका नियमसे अनुत्कृष्ट अनुभागबन्ध तो होने ही लगता है। इनके पर्याप्तकों में इसी प्रकार उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका उत्कृष्ट अन्तर काल संख्यात हजारवर्ष ले आना चाहिए । अर्थात् संख्यात हजार वर्षप्रमाण कायस्थितिके प्रारम्भमें और अन्तमें उत्कृष्ट अनुभागबन्ध कराके इसका उत्कृष्ट अन्तर ले आना चाहिए और बीचमें संख्यात हजार वर्षतक नायक और वायुकायिक जीवोंमें परिभ्रमण कराके इनके अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका उत्कृष्ट अन्तर संख्यात हजार वर्ष ले आना चाहिए। सूक्ष्मों में भी इसी प्रकार इनके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका उत्कृष्ट अन्तर असंख्यात लोकप्रमाण ले आना चाहिए। ज्योत अध्रुवन्धिनी प्रकृति होनेसे इसके उत्कृष्ट अनुभागबन्धका उत्कृष्ट अन्तर एकेन्द्रियोंमें अनन्तकाल बन जाने से यह उक्तप्रमाण कहा है। शेष कथन स्पष्ट ही है । अंतरपरूवणा ५६३. विकलेन्द्रिय और विकलेन्द्रिय पर्याप्त जीवोंमें ध्रुवबन्धवाली प्रकृतियोंके उत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर संख्यात हजार वर्ष है । अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर दो समय है । तिर्यवायुके उत्कृष्ट अनुभागबन्धका अन्तर ज्ञानावरण के समान है । अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर प्रकृतिबन्धके अन्तर के समान है । मनुष्यायुके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट Jain Education International उ० ५. श्रा० प्रतौ अंतो । विगलिंदियपज्जते इति पाठः । २ प्रा० प्रतौ तिरिक्खायु० खाणा० इति पाठः । ४२ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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