Book Title: Mahabandho Part 4
Author(s): Bhutbali, Fulchandra Jain Shastri
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 383
________________ महाधे भागबंधाहियारे 1 ५८४. नील-काऊ पंचणा० छदंसणा ० - बारसक० भय-दु० -तेजा०[0-क०-पसत्थापसत्थ०४ - अगु० - उप०णिमि० पंचंत० उ० ज० ए०, उ० सत्तारस- सत्तसाग० दे० । अणु० ज० ए०, उ० बेस० । थीणगिद्धि ०३ - मिच्छ० - अनंताणुबं ०४ - इत्थिवे ० - णवुंस०तिरिक्ख ० -- पंचसंठा ० -- पंचसंघ०--तिरिक्खाणु० -- उज्जो ० -- अप्पसत्थ० --दृ -- दूभग०-- दुस्सरअणादें - णीचा० उ० अणु० ज० ए०, उ० सत्तारस- सत्तसाग० देस्र० । सादासाद ०पंचणोक ०5०- मणुस ० - पंचिंदि० - ओरालि० समचदु० ओरालि० अंगो० वज्जरि०-मणुसाणु० - पर०-उस्सा०--पसत्थवि०--तस०४ - थिराथिर - सुभासुभ-सुभग-- सुस्सर - आदें - ०-जस० ३५८ / मनुष्य ही होता है, अतः इनके अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त कहा है। मात्र इनका अनुत्कृष्ट अनुभागबन्ध नरक में भी होता है, अतः इनके अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम छह महीना कहा है। नरकगति आदिका उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागबन्ध तिर्यञ्च और मनुष्य के होता है, तथा ये परावर्तमान प्रकृतियाँ हैं, अतः इनके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त कहा है। इसी प्रकार वैक्रियिकद्विकके उत्कृष्ट अनुभागबन्धका उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त घटित कर लेना चाहिए । जो जीव सातवें नरकसे निकलेगा वह नियमसे मिध्यादृष्टि तिर्यञ्च होता है, अतः वह पहिले अन्तर्मुहूर्त में वैक्रियिकद्विकका बन्ध नहीं कर सकता है और उसके बाद उसके लेश्या बदल जायेगी । किन्तु छठें नरकसे सम्यक्त्व सहित भी निकल सकता है और सम्यक्त्व सहित मनुष्य अपर्याप्त काल में भी वैक्रियिकद्विकका बन्ध करेगा, अतः अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका उत्कृष्ट अन्तर बाईस सागर कहा है । तैजसशरीर आदिका सम्यग्दृष्टि नारकी उत्कृष्ट अनुभागबन्ध होता है और ये ध्रुवबन्धिनी प्रकृतियाँ हैं, अतः इनके उत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तेतीस सागर कहा है और इनके उत्कृष्ट अनुभागवन्धका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल दो समय होनेसे इनके अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर दो समय कहा है । सातवें नरक में सम्यक्त्वके श्रभिमुख हुए जीवके उद्योतका उत्कृष्ट अनुभागबन्ध होता है, अतः इसके उत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त कहा है । तथा सम्यग्दृष्टिके इसका बन्ध नहीं होता, अतः इसके अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तेतीस सागर कहा है । कृष्णश्यामें तीर्थङ्कर प्रकृतिका भङ्ग मनुष्योंके ही होता है, अतः इसके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका अन्तर नरकायुके समान घटिन हो जानेसे वह उसके समान कहा है । ५४. नील और कापोतलेश्या में पाँच ज्ञानावरण, छह दर्शनावरण, वारह कपाय, भय, जुगुप्सा, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, प्रशस्त वर्णचतुष्क, अप्रशस्त वर्णचतुष्क, अगुरुलघु, उपघात, निर्माण और पाँच अन्तरायके उत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम सत्रह सागर और कुछ कम सात सागर है । अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर दो समय है । स्त्यानगृद्धि तीन, मिध्यात्व, अनन्तानुबन्धी चार, स्त्रीवेद, नपुंसक वेद, तिर्यञ्चगति, पाँच संस्थान, पाँच संहनन, तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वी, उद्योत, प्रशस्त विहायोगति, दुर्भग, दुःस्वर, श्रनादेय और नीचगोत्रके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम सह सागर और कुछ कम सात सागर | सातावेदनीय, असातावेदनीय, पाँच नोकपाय, मनुष्यगति, पञ्च ेन्द्रियजाति, श्रदारिकशरीर, समचतुरस्रसंस्थान, द्यौदारिक आङ्गोपाङ्ग, वज्रपभनाराच संहनन, मनुष्यगत्यानुपूर्वी, परघात, उच्छ्वास, प्रशस्त विहायोगति, त्रराचतुष्क, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, सुभग, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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