Book Title: Mahabandho Part 4
Author(s): Bhutbali, Fulchandra Jain Shastri
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 407
________________ ३८२ महाबंधे अणुभागबंधाहियारे मिच्छ०-अणंताणु०४ ज० अज० ज० अंतो०, उ० ऍक्कत्तीसं० देसू० । सादासाद०पंचणोक०-थिरादितिण्णियुग० ज० ज० एग०, उ० तेंतीसं० देसू० । अज० ज० ए०, उ० अंतो० । इत्थि०--णस०-पंचसंठा०-पंचसंघ०--अप्पस०--दूभग-दुस्सर-अणादेंणीचा० ज० अज० ज० ए०, उ० ऍकत्तीसं० देसू० । दोआयु० णिरयभंगो । तिरिक्ख०तिरिक्खाणु०-उज्जो० ज० अज० ज० ए०, उ. अहारस० सादि० । मणुस-पंचिंदि०ओरालि०अंगो०-मणुसाणु०-तस० ज० ज० ए०, उ० अहारस० सादि० । अज० सादभंगो। एइंदि०-आदाव-थावर० ज० अज० ज० ए०, उ० बेसागरो० सादि० । ओरालि०-तेजा-क०-पसत्थ०४-अगु०३-बादर-पज्जत्त-पत्ते-णिमि०-तित्थ० ज० ज० ए०, उ० अट्ठारस० सादि० । अज० ज० ए०, उ० बेस० । समचदु०-वजरि०पसत्थ०--सुभग-मुस्सर--आदें--उच्चा० ज० ज० ए०, उ० ऍकत्तीसं० देस० । अज० सादभंगो। एवं सव्वदेवाणं अप्पप्पणो पगदिअंतरं णेदव्वं । और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तेतीस सागर है। अजघन्य अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर दो समय है। स्त्यानगृद्धि तीन, मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धी चारके जघन्य और अजघन्य अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम इकतीस सागर है। सातावेदनीय, असातावेदनीय, पाँच नोकषाय और स्थिर आदि तीन युगलके जघन्य अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तेतीस सागर है। अजघन्य अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तमुहूर्त है। स्त्रीवेद, नपुंसकवेद, पाँच संस्थान, पाँच संहनन, अप्रशस्त विहायोगति, दुर्भग, दुःस्वर, अनादेय और नीचगोत्रके जघन्य और अजघन्य अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम इकतीस सागर है। दो आयुओंका भङ्ग नारकियों के समान है। तिर्यञ्चगति, तिर्यश्चगत्यानुपूर्वी और उद्योतके जघन्य और अजघन्य अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर माधिक अठारह सागर है। मनुष्यगति, पञ्चन्द्रियजाति, औदारिक आङ्गोपाङ्ग, मनुष्यगत्यानुपूर्वी और त्रसके जघन्य अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर साधिक अठारह सागर है। अजघन्य अनुभागबन्धका भङ्ग सातावेदनीयके समान है। एकेन्द्रियजाति, आतप और स्थावरके जघन्य और अजघन्य अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर साधिक दो सागर है। औदारिकशरीर, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, प्रशस्त वर्णचतुष्क, अगुरुलघुत्रिक, बादर, पर्याप्त, प्रत्येक, निर्माण और तीर्थङ्करके जघन्य अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर साधि अठारह सागर है। अजघन्य अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर दो समय है। समचतुरस्त्रसंस्थान, वर्षभनाराच संहनन, प्रशस्त विहायोगति, सुभग, सुस्वर, आदेय और उच्चगोत्रके जघन्य अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम इकतीस सागर है। अजघन्य अनुभागबन्धका अन्तर सातावेदनीयके समान है। इसी प्रकार सब देवोंमें जिनके जिन प्रकृतियों का बन्ध होता है, उनका अन्तरकाल जानना चाहिए। विशेषार्थ-देवोंमें पाँच ज्ञानावरणादि प्रकृतियोंका जघन्य अनुभागबन्ध सर्व विशुद्ध किसी भी सम्यग्दृष्टिके होता है, इसलिए इनके जघन्य अनुभागबन्धका उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तेतीस सागर कहा है। स्त्यानगृद्धि तीन आदिका बन्ध अन्तिम अवेयक तक ही होता है, इसलिए इनके बन्धकी चरमावधि ३१ सागर है। उसमें भी सम्यग्दृष्टिके इनका बन्ध नहीं होता और नौवें वेयक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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