Book Title: Mahabandho Part 4
Author(s): Bhutbali, Fulchandra Jain Shastri
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 395
________________ ३७० wwwNNNNNN महाबंधे अणुभागबंधाहियारे दोआणु० उ० अणु० ज० ए०, उ. अंगुल० असंखें। तिरिक्खाउ० उ० णाणाoमंगो। अणु० ओघं । देवगदि०४ उ० पत्थि अंतरं । अणु० ज० ए०, उ० अंगुल. असंखें । ओरालि०-ओरालि०अंगो०-वज्जरि० उ० णाणाभंगो। अणु० ओघं । चदुजादि-आदाव-थावरादि०४ उ० णाणा मंगो। अणु० ओघं। उज्जो० उ० ज० अंतो०, उ० अंगुल० असं० । अणु० ओघं । एवमुक्कस्समंतरं समत्तं । आनुपूर्वीके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अमुलके असंख्यातवें भागप्रमाण है । तिर्यश्चायुके उत्कृष्ट अनुभागबन्धका अन्तर ज्ञानावरणके समान है। अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका अन्तर ओघके समान है। देवगति चारके उत्कृष्ट अनुभागबन्धका अन्तर नहीं है। अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अङ्गुलके असंख्यातवें भागप्रमाण है। औदारिकशरीर, औदारिक आङ्गोपाङ्ग और वर्षभनाराचसंहननके उत्कृष्ट अनुभागबन्धका अन्तर ज्ञानावरणके समान है और अनुत्कृष्ट अनुभागबन्ध का अन्तर ओघके समान है । चार जाति, आतप और स्थावर आदि चारके उत्कृष्ट अनुभागबन्धका अन्तर ज्ञानावरणके समान है और अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका अन्तर ओघके समान है। उद्योतके उत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर अन्तमुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर अङ्गुलके असंख्यातवें भागप्रमाण है। अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका अन्तर ओघके समान है। विशेषार्थ-आहारकोंकी कायस्थिति अङ्गुलके असंख्यातवें भागप्रमाण है । इसके प्रारम्भमें और अन्तमें ज्ञानावरणादिका उत्कृष्ट अनुभागबन्ध हो और मध्यमें न हो यह सम्भव है, अतः इनके उत्कृष्ट अनुभागबन्धका उत्कृष्ट अन्तर उक्त प्रमाण कहा है। इसी प्रकार आगे जिन प्रकृतियोंका यह अन्तर कहा है,वह इसी प्रकार घटित कर लेना चाहिए। स्त्रीवेद आदिके अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम दो छियासठ सागर यहाँ भी बन जाता है, अतः यह ओघके समान कहा है। सातादिदण्डक, आठ कषाय और नपुंसकवेददण्डकका भी जो अन्तर ओघके समान कहा है, वह इसी प्रकार ओघके अनुसार घटित कर लेना चाहिए । तिर्यश्वायु का अनुत्कृष्ट अनुभागबन्ध कमसे कम एक समयके अन्तरसे और अधिकसे अधिक सौ सागरपृथक्त्वके अन्तरसे हारकके अवश्य ही होता है। ओघसे यह अन्तर इतना ही है, अतः यह भी ओघके समान कहा है। देवगतिचतुष्कका उत्कृष्ट अनुभागबन्ध क्षपकश्रेणिमें होता है, अत: इसके अन्तरका निषेध किया है । तथा आहारकके इनका बन्ध अङ्गुलके असंख्यातवें भाग काल तक न हो यह सम्भव है, अतः इनके अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका उत्कृष्ट अन्तर उक्त प्रमाण कहा है। आहारकके औदारिकशरीर आदिका ओघके समान उत्कृष्टसे साधिक तीन पल्य तक बन्ध नहीं होता. अतः इनके अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका अन्तर ओघके समान कहा है। इसी प्रकार यहाँ चार जाति आदिका ओघके समान अधिकसे अधिक एकसौ पचासी सागर तक बन्ध नहीं होता, अतः इनके अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका अन्तर ओघके समान कहा है। उद्योतका सम्यक्त्वके अभिमुख हुआ सातवेंनरकका नारकी उत्कृष्ट अनुभागबन्ध करता है, अतः इसके उत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर अन्तमुहर्त कहा है और इसका उत्कृष्ट अन्तर अङ्गालके असंख्यातवें भागप्रमाण है.यह स्पष्ट ही है । इसका अधिकसे अधिक एक सौ त्रेसठ सागर तक बन्ध नहीं होता। ओघसे इसके अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका उत्कृष्ट अन्तर इतना ही है । अतः यह भी ओघके समान कहा है। इस प्रकार उत्कृष्ट अन्तर समाप्त हुआ। १. ता प्रतौ बजरियाणा.इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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