Book Title: Mahabandho Part 4
Author(s): Bhutbali, Fulchandra Jain Shastri
Publisher: Bharatiya Gyanpith

View full book text
Previous | Next

Page 398
________________ - ~ - - wwwwwwwwwwwww AnswaranAANW w w अन्तरपरूषणा ३७३ सागरोवमसदं । णीचा० ज० ज. अंतो', उ० अद्धपोग्गल । अज० ज० ए०, उ० बेछावहि० सादि० तिण्णिपलिदो० देसू० । सागर है। नीचगोत्रके जघन्य अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर अन्तमुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर अर्धपुदूगलपरिवर्तनप्रमाण है। अजघन्य अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तीन पल्य अधिक दो छियासठ सागर है। विशेषार्थ-तीर्थङ्करके सिवा यहाँ प्रथम दण्डकमें कही गई.प्रकृतियोंका जघन्य अनुभागबन्ध क्षपकश्रेणिमें अपनी-अपनी बन्धव्युच्छित्तिके अन्तिम समयमें और तीर्थङ्करप्रकृतिका जघन्य अनुभागबन्ध मिथ्यात्वके अभिमुख हए उत्कृष्ट संक्लेशयुक्त मनुष्यके अन्तिम समयमें होता है, अतः इनके जघन्य अनुभागबन्धके अन्तरकालका निषेध किया है। तथा उपशमश्रेणिमें अपनीअपनी बन्धब्युच्छित्तिके बाद एक समयके लिए इनका अबन्धक होकर मरकर देव होनेपर पुनः इनका बन्ध होने लगता है, अतः इनके अजघन्य अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय कहा है। मात्र निद्रा और प्रचलाकी उपशमश्रोणिमें बन्धव्युच्छित्ति होने पर अन्तर्मुहूर्तकालतक मरण नहा हाता, अतः इनके अजघन्य अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर अन्तमुहूतं कहा है। उपशम श्रोणिकी अपेक्षा इन सबके अजघन्य अनुभागबन्धका उत्कृष्ट अन्तर अन्तमुहूर्त है,यह स्पष्ट ही है । संयमके अभिमुख हुए मनुष्यके मिथ्यात्व आदिका जघन्य अनुभागबन्ध होता है और संयमका जघन्य अन्तर अन्तमुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम अर्धपुद्गलपरिवर्तनप्रमाण है, अतः इनके जघन्य अनुभागबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर उक्त प्रमाण कहा है। तथा मिथ्यात्वका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम दो छियासठ सागर है, अतः इनके अजघन्य अनुभागबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर उक्तप्रमाण कहा है। सातावेदनीय आदिका जघन्य अनुभागबन्ध परिवर्तमान मध्यम परिणामोंसे होता है और ऐसे परिणाम कमसे कम एक समयके अन्तरसे और अधिकसे अधिक असंख्यात लोकप्रमाण काल के अन्तरसे होते हैं, अतः इनके जघन्य अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर उक्त प्रमाण कहा हैं। तथा ये परावर्तमान प्रकृतियाँ हैं, अतः इनके अजघन्य अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर अन्तमुहूर्त कहा है। आगे भी ओघ और आदेशसे जहाँ जो प्रकृतियाँ हों, उनके अजघन्य अनुभागबन्धका अन्तरकाल इसी प्रकार जानना चाहिए। क्योंकि परावर्तमान प्रकृतियोंका कमसे कम एक समयके अन्तरसे और अधिकसे अधिक अन्तमुहूर्तकाल के अन्तरसे नियमसे बन्ध होता है। यद्यपि समचतुरस्त्रसंस्थान, सुभग, सुस्वर ओर आदेयका मिश्रगुणस्थानसे आगे नियमसे बन्ध होता है और वहाँ ये परावर्तमान नहीं रहती, फिर भी उपशमश्रेणिमें इनकी बन्धव्युच्छित्ति होने पर वहाँ भी मरणकी अपेक्षा एक समय और आरोहणअवरोहणकी अपेक्षा अन्तमुहूर्त तक इनका बन्धाभाव देखा जाता है, इसलिए इस दृष्टि से भी इनका यही अन्तर प्राप्त होता है। संयमके अभिमुख हुए जीवके अपनी-अपनी व्युच्छित्तिके अन्तिम समयमें मध्यकी आठ कषायोंका जघन्य अनुभागबन्ध सम्भव है और संयमका जघन्य अन्तर अन्तमुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम अर्धपुद्गलपरिवर्तनप्रमाण है, अतः इनके जघन्य अनुभागबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर उक्त प्रमाण कहा है । तथा संयमासंयम और संयमका जघन्य काल अन्तमुहूर्त और उत्कृष्ट काल कुछ कम एक पूर्वकोटि है, अत: इनके अजघन्य अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर अन्तमहूर्त और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम एक पूर्वकोटि कहा है । स्त्रीवेदका जघन्य अनुभागबन्ध संज्ञी पञ्चन्द्रिय पर्याप्त जीवके होता है और इस पर्यायका १. प्रा. प्रतौ णीचा. ज. अंतो० इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 396 397 398 399 400 401 402 403 404 405 406 407 408 409 410 411 412 413 414 415 416 417 418 419 420 421 422 423 424 425 426 427 428 429 430 431 432 433 434 435 436 437 438 439 440 441 442 443 444 445 446 447 448 449 450 451 452 453 454