Book Title: Mahabandho Part 4
Author(s): Bhutbali, Fulchandra Jain Shastri
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 394
________________ अन्तरपरूवणा ३६६ मिच्छादिही० मदिभंगो'। सण्णी. पंचिंदियपज्जत्तभंगो। असण्णी० धुविगाणं उ० ज० ए०, उ० अणंतका० । अणु० ज० ए०, उ० बेसम० । चदुआउ०-वेउव्वियछ०मणुस०३ तिरिक्खोघो । सेसाणं उ० ज० ए०, उ. अणंतका० । अणु० ज० ए०, उ० अंतो। ५६३. आहारगे पंचणा०-छदंसणा०--असादा०--चदुसंज०--सत्तणोक०-अप्पसत्थ०४-उप०-अथिर-असुभ-अजस०-पंचंत० उ० ज० ए०, उ० अंगुल० असंखें । अणु० ओघं । थीणगिदि०३-मिच्छ०---अणंताणुबं०४-इत्थि० उ० णाणा भंगो। अणु० ओघं । सादादिदंडओ ओघो। अढकसा० उ० णाणाभंगो। अणुक्कस्सं ओघं । णqसगदंडओ उ० णाणाभंगो। अणु० ओघं । तिण्णिआयु०-णिरय-मणुस०जीवोंका भङ्ग मत्यज्ञानी जीवोंके समान है। संज्ञी जीवोंका पञ्चन्द्रियपर्याप्त जीवोंके समान भङ्ग है। असंज्ञी जीवोंमें ध्रुवबन्धवाली प्रकृतियोंके उत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अनन्त काल है । अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर दो समय है। चार आयु, वैक्रियिक छह और मनुष्यगतित्रिकका भङ्ग सामान्य तिर्यञ्चोंके समान है। शेष प्रकृतियोंके उत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अनन्तकाल है । अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तमुहूर्त है। विशेषार्थ-यहाँ अप्रशस्त ध्रुवबन्धवाली प्रकृतियोंका मिथ्यात्वके अभिमुख हुए जीवके और प्रशस्त ध्रुवबन्धवाली प्रकृतियोंका सम्यक्त्वके अभिमुख हुए जीवके उत्कृष्ट अनुभागबन्ध होता है, अतः इनके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धके अन्तरकालका निषेध किया है। शेष परावर्तमान प्रकृतियोंका जैसा सासादनमें अन्तरकाल कहा है, वैसा यहाँ भी बन जाता है, अतः यह उसके समान कहा है। मत्यज्ञानी मुख्यरूपसे मिथ्यादृष्टि ही होते हैं, अतः मिथ्यादृष्टियोंमें सब प्रकृतियोंका भङ्ग मत्यज्ञानी जीवोंके समान बन जानेसे उनके समान कहा है। संझियोंमें पञ्चन्द्रिय पर्याप्तकोंकी मुख्यता है, अतः संज्ञियोंमें सब प्रकृतियोंका भङ्ग पश्चन्द्रिय पर्याप्तकोंके समान कहा है। असंझियोंकी कायस्थिति अनन्तकाल है, अतः यहाँ सब प्रकृतियोंके उत्कृष्ट अनुभागबन्धका उत्कृष्ट अन्तर अनन्तकाल कहा है। मात्र चार आयु आदिके भङ्गको सामान्य तिर्यश्चोंके समान कहनेका कारण भिन्न है सो जान कर समझ लेना चाहिए । शेष कथन स्पष्ट ही है। ५६३. आहारकोंमें पाँच ज्ञानावरण, छह दर्शनावरण, असातावेदनीय, चार संज्वलन, सात नोकषाय, अप्रशस्त वर्णचतुष्क, उपघात, अस्थिर, अशुभ, अयशः कीर्ति और पाँच अन्तरायके उत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अङ्गुलके असंख्यातवें भागप्रमाण है। अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका भङ्ग श्रोधके समान है। स्त्यानगृद्धि तीन, मिथ्यात्व, अनन्तानुबन्धी चार और स्त्रीवेदके उत्कृष्ट अनुभागबन्धका भङ्ग ज्ञानावरणके समान है । अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका भङ्ग आंघके समान है। सातावेदनीय आदि दण्डक आघके समान है। आठ कषायोंके उत्कृष्ट अनुभागबन्धका अन्तर ज्ञानावरणके समान है। अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका भङ्ग ओघके समान है । नपुंसकवेददण्डकके उत्कृष्ट अनुभागबन्धका अन्तर ज्ञानावरणके समान है। अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका अन्तर ओघके समान है। तीन आयु, नरकगति, मनुष्यगति और दो १. ता• प्रतौ सेसाणं मिच्छादिटिमदिभंगो इति पाठः । २. ता. प्रतौ भंगो तिरिणायु. इति पाठः । ४७ For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org

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