Book Title: Mahabandho Part 4
Author(s): Bhutbali, Fulchandra Jain Shastri
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 393
________________ ३६८ महायचे अणुभागबंधाहियारे ५६१. सासणे पंचणा०--णवदंसणा०-सोलसक०-भय-दु०-तिगदि-पंचिंदि०चदुसरीर०--समदु०--दोअंगो०-वजरि०--पसत्थापसत्थ०४-तिण्णिआणु०-अगु०४पसत्थ०-तस०४ -सुभग-सुस्सर-आदें-णिमि०-णीचुचा०-पंचंत० उ. अणु० णत्थि अंतरं । तिपिणआउ० उ० ज० ए०, [उ. अंतो० । अणु० ज० ए०] उ० बेसम० । हस्स-रदि० उ० अणु० ज० ए०, उ० अंतो० । सेसाणं उ० णत्थि अंतरं । अणु० ज. ए०, उ. अंतो० । अथवा सासणे पंचणा०-णवदंसणा०-सोलसक०-भय-दु०-तिण्णिआउ०-पंचिंदि०-तेजा०-क०-पसत्थापसत्थ०४-अगु०४-तस०४--णिमि०-पंचंत० उ. ज० ए०, उ० अंतो० । अणु० ज० ए०, उ० बेसम० । सेसाणं उ० अणु० ज० ए०, उ० अंतो०। ५६२. सम्मामि० धुविगाणं उ० अणु० णत्थि अंतरं । सेसाणं सासणभंगो । जान लेना चाहिए। तथा प्रथम दण्डक व मनुष्यगतिपश्चकको छोड़कर शेष सब प्रकृतियों के अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर अन्तमुहूर्त अलग-अलग कारणसे बन जाता है। कारणका खुलासा प्रकृतिको देखकर कर लेना चाहिए। ५६२. सासादनसम्यक्त्वमें पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, सोलह कषाय, भय, जुगुप्सा, तीन गति, पञ्चोन्द्रियजाति, चार शरीर, समचतुरस्त्रसंस्थान, दो आङ्गोपाङ्ग, वज्रर्षभनाराच संहनन, प्रशस्त वर्णचतुष्क, अप्रशस्त वर्णचतुष्क, तीन आनुपूर्वी, अगुरुलघुचतुष्क, प्रशस्त विहायोगति, त्रसचतुष्क, सुभग, सुस्वर, आदेय, निर्माण, नीचगोत्र, उच्चगोत्र और पाँच अन्तरायके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका अन्तरकाल नहीं है । तीन आयुके उत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है। अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर दो समय है। हास्य और रतिके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तमुहूर्त है । शेष प्रकृतियोंके उत्कृष्ट अनुभागबन्धका अन्तरकाल नहीं है। अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तमुहूर्त है । अथवा सासादनमें पाँच ज्ञानावरण नौ दर्शनावरण, सोलह कषाय, भय, जुगुप्सा, तीन आयु, पञ्चन्द्रियजाति, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, प्रशस्त वर्णचतुष्क, अप्रशस्त वर्णचतुष्क, अगुरुलघुचतुष्क, सचतुष्का, निर्माण और पाँच अन्तरायके उत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तमुहूर्त है। अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर दो समय है। शेष प्रकृतियों के उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तमुहूर्त है। विशेषार्थ-यहाँ सासादनमें पहले तीन आयु और हास्य-रतिको छोड़कर शेष प्रकृतियों के उत्कृष्ट अनुभागका बन्ध ऐसे परिणामोंसे और ऐसे समयमें मानकर अन्तरका निर्देश किया है जिससे उनके उत्कृष्ट अभुभागबन्धका अन्तर ही सम्भव नहीं। ऐसी अवस्था में जो ध्रुवबन्धिनी हैं, उनके अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका तो अन्तर बनता ही नहीं। हाँ, जो परावर्तमान प्रकृतियाँ हैं, उनके अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका इस कारणसे अवश्य ही अन्तर बन जाता है, अतः वह जघन्य एक समय और उत्कृष्ट अन्तमुहूर्त होनेसे उक्त प्रमाणं बतलाया है । इसके बाद विकल्परूपसे सब प्रकृतियों का जो अन्तर कहा है,वह पहले निर्दिष्ट स्वामित्वको ध्यानमें रख कर कहा है। शेष स्पष्ट ही है। ५६२. सम्यग्मिध्यात्वमें ध्रुवबन्धवाली प्रकृतियोंके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागवन्धका अन्तरकाल नहीं है। शेष प्रकृतियोंका भङ्ग सासादनसम्यग्दृष्टि जीवोंके समान है। मिथ्याष्टि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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