Book Title: Mahabandho Part 4
Author(s): Bhutbali, Fulchandra Jain Shastri
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 384
________________ अंतरपरूषणा ३५६ अजस०-उच्चा० उ० णाणा भंगो। अणु० ज० ए०, उ० अंतो० । चदुआयु०-वेवियछ०-चदुजादि-आदाव--थावरादि०४-तित्थ० किण्णभंगो । णवरि काउ० तित्थ० णिरयोघं। ५८५. तेऊए पंचणा०-छदसणाo-बारसक०-भय-दु०-ओरालि०-अप्पसत्थ०४उप०-पंचंत० उ० ज० ए०, उ० बे साग० सादि० । अणु० ज० ए०, उ० बेसम० । थीणगिद्धि०३-मिच्छ०-अणंताणुबं०४-इत्थि०-णवूस-तिरिक्ख-एइंदि०--पंचसंठा०-पंचसंघ०-तिरिक्वाणु०-आदावुजो०-अप्पसत्थ०-थावर-दूभग-दुस्सर-अणादें-णीचा. उ० अणु० ज० एग०, उ० बे साग० सादि० । सादा०-पंचिदि०-समचदु०-पसत्थ०-तस०थिरादिछ०-उच्चा० उ० पत्थि अंतरं। अणु० ज० ए०, उ० अंतो० । असादा०पंच सुस्वर, आदेय, यशःकीर्ति, अयशःकीर्ति और उच्चगोत्रके उत्कृष्ट अनुभागबन्धका भङ्ग ज्ञानावरणके समान है । अनुत्कृष्ट अनुभागवन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तमुहूर्त है । चार आयु, वैक्रियिक छह, चार जाति, अातप, स्थावर आदि चार और तीर्थङ्कर प्रकृतिका भङ्ग कृष्णलेश्याके समान है। इतनी विशेषता है कि कापोतलेश्यामें तीर्थङ्करप्रकृतिका भङ्ग सामान्य नारकियोंके समान है। विशेषार्थ-प्रथम दण्डकमें कही गई प्रकृतियोंका और दूसरे दण्डकमें कही गई प्रकृतियोंका उत्कृष्ट अनुभागबन्ध नारकीके होता है, अतः यहाँ इनके उत्कृष्ट अनुभागबन्धका उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम सत्रह सागर और कुछ कम सात सागर कहा है। तथा दूसरे दण्डकमें कही गई प्रकृतियोंका सम्यग्दृष्टिके बन्ध नहीं होता, अत: इनके अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका उत्कृष्ट अन्तर भी इतना ही कहा है। यद्यपि उद्योतका उत्कृष्ट अनुभागबन्ध तीन गतिके जीवके होता है, पर नरकके सन्मुख जीवके नहीं होता। अतः इसे भी दूसरे दण्डको परिगणित किया है। साता आदिका उत्कृष्ट अनुभागबन्ध नारकीके ही होता है, अतः इनके उत्कृष्ट अनुभागबन्धका भङ्ग ज्ञानावरणके समान कहा है और ये परावर्तमान प्रकृतियाँ हैं, अत: इनके अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका उत्कृष्ट अन्तर अन्तमुहर्त कहा है। चार आयु आदिका कृष्णलेश्यामें जैसा स्पष्टीकरण किया है उसी प्रकार यहाँ भी कर लेना चाहिए। उससे यहाँ कोई विशेषता नहीं है, अतः यह कृष्णलेश्याके समान कहा है। मात्र सामान्य नारकियोंमें तीर्थकर प्रकृतिके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका जो अन्तर कहा है वह कापोतलेश्यामें ही घटित होता है, अतः कापोतलेश्यामें तीर्थङ्कर प्रकृतिका भङ्ग सामान्य नारकियोंके समान कहा है। ५५. पीतलेश्यामें पाँच ज्ञानावरण, छह दर्शनावरण, बारह कषाय, भय, जुगुप्सा, औदारिकशरीर, अप्रशस्त वण चार, उपघात और पांच अन्तरायके उत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर साधिक दो सागर है। अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ठ अन्तर दो समय है। स्त्यानगृद्धि तीन, मिथ्यात्व, अनन्तानुबन्धी चार, स्त्रीवेद, नपुंसमवेद, तिर्यगति, एकेन्द्रियजाति, पाँच संस्थान, पाँच संहनन, तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वी, अातप, उद्योत, अप्रशस्त विहायोगति, स्थावर, दुर्भग, दुःस्वर, अनादेय और नीचगोत्रके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर साधिक दो सागर है । सातावेदनीय, पञ्चन्द्रियजाति, समचतुरस्त्र संस्थान, प्रशस्त विहायोगति, त्रस, स्थिर आदि छह और उच्चगोत्र के उत्कृष्ट अनुभागबन्धका अन्तरकाल नहीं है। अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तमुहूर्त है। असातावेदनीय, पाँच नोकषाय, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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