Book Title: Mahabandho Part 4
Author(s): Bhutbali, Fulchandra Jain Shastri
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 359
________________ ३३४ महाबंधे अणुभागबंधाहियारे ५६६. पंचमण०--पंचवचि० पंचणा०--णवदंसणाo--मिच्छ०--सोलसक०भय-दु०--चदुआयु०--अप्पसत्थ०४-उप०--पंचंत० उ० ज० एग०, उ० अंतो० । अणु० ज० एग०, उ० बेसम०। [सादा०-] देवगदि०४-पंचिंदि०-समचदु०-पर०उस्सा०-उज्जों -पसत्थ०-तस०४-थिरादिछ०-उच्चा० उ० पत्थि अंतरं । अणु० ज० एग०, उ० अंतो० । असादा०-सत्तणोक०-तिण्णिगदि-चदुजादि-ओरालि०-पंचसंठा० ओरालि०अंगो०-छस्संघ०-तिण्णिआणु०-आदाव०--अप्पसत्थ०--थावरादि०४-अथिरादिछ०-णीचा० उ. अणु० ज० एग०, उ० अंतो। आहार०-तेजा-क०-आहार०अंगो०-पसत्थ०४-अगु०-णिमि०-तित्थ० उ० अणु० णत्थि अंतरं। भङ्ग सातावेदनीयके समान जानना चहिए । बादर वनस्पतिकायिक प्रत्येक शरीर जीवोंकी कायस्थिति व सब प्रकृतियोंका बन्ध बादर पृथिवीकायिक जीवोंके समान है और निगोद जीवोंकी कायस्थिति व सब प्रकृतियोंका बन्ध वनस्पतिकायिक जीवोंके समान है, इसलिए यह कथन इनके समान किया है। ५६६. पाँचों मनोयोगी और पाँचों वचनयोगी जीवोंमें पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, भय, जुगुप्सा, चार आयु, अप्रशस्त वर्णचतुष्क, उपघात और पाँच अन्तरायके उत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तमुहूर्त है। अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर दो समय है । सातावेदनीय, देवगति चार, पञ्चन्द्रियजाति, समचतुरस्त्र संस्थान, परघात, उच्छ्वास, उद्योत, प्रशस्त विहायोगति, सचतुष्क, स्थिर आदि छह, और उच्चगोत्रके उत्कृष्ट अनुभागबन्धका अन्तर काल नहीं है। अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तमहर्त है। असातावेदनीय, सात नोकषाय, तीन गति, चार जाति, औदारिकशरीर, पाँच संस्थान, औदारिक आङ्गोपाङ्ग, छह संहनन, तीन आनुपूर्वी, आतप, अप्रशस्त विहायोगति, स्थावर आदि चार, अस्थिर आदि छह और नीचगोत्रके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है। आहारकशरीर, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, आहारक आङ्गोपाङ्ग, प्रशस्त वर्णचतुष्क, अगुरुलधु, निर्माण और तीर्थङ्करके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका अन्तर काल नहीं है। विशेषार्थ-इन योगोंका उत्कृष्ट काल अन्तमुहूर्त है, अतः यहाँ पाँच ज्ञानावरणादिके उत्कृष्ट अनुभागबन्धका उत्कृष्ट अन्तर अन्तमुहूर्त कहा है। सातावेदनीय आदिका उत्कृष्ट अनुभागबन्ध क्षपकोणिमें होता है। तथा उद्योतका उत्कृष्ट अनुभागबन्ध सम्यक्त्वके अभिमुख हुए सातवें नरकके नारकीके होता है, अतः यहाँ इनके उत्कृष्ट अनुभागवन्धका अन्तर काल सम्भव न होनेसे उसका निषेध किया है। तथा ये सब अध्रुवबन्धिनी प्रकृतियाँ हैं, अतः इनके अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर अन्तमुहूते कहा है ! असातावेदनीय आदि भी अध्रुवबन्धिनी प्रकृतियाँ है और इनका एक समयके अन्तरसे उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागबन्ध सम्भव है। तथा उसी योगके रहते हुए अन्तर्मुहूर्तके बाद पुनः इनका उत्कृष्ट अनुभागबन्ध सम्भव है और यदि बीचमें प्रतिपक्ष प्रकृतिका बन्ध होने लगे तो इनके अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धमें भी अन्तमुहूर्तका अन्तरकाल उपलब्ध होता है, अतः इनके उत्कृष्ट और अनु. १. बेसम० इति स्थाने ता० प्रतौ बेस० सादि०, प्रा. प्रतो बेसाग० इति पाठः। २. ता० प्रती पर० उज्जो० इति पाठः । ३. ता० श्रा. प्रत्योः श्राहारे० इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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