Book Title: Mahabandho Part 4
Author(s): Bhutbali, Fulchandra Jain Shastri
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 370
________________ अंतरपरूवणा ३४५ ५७३. अवगदवे० सव्वपगदीणं उ. पत्थि अंतरं । अणु० ज० उक्क० अंतो०। ५७४. कोधे' पंचणा०-सत्तदंसणा०--मिच्छ०--सोलसक०--चदुआयु०--पंचंत० उ० ज० एग०, उ० अंतो० । अणु० ज० एग०, उ० बेसम० । णिद्दा-पचला-असादा०णवणोक०-तिगदि-चदुजादि--ओरालि०-पंचसंठा०--ओरालि० अंगो०-छस्संघ०--अप्पसत्थ०४-तिण्णिआणु०--उप०-आदाव०--अप्पसत्थवि०-थावरादि०४-अथिरादिछ०णीचा० उ० अणु० ज० एग०, उ. अंतो। सादा०-देवगदि०४-पंचिंदि०-तेजा.. क०-समचदु० - पसत्थ०४-अगु०३-उज्जो० - पसत्थ० - तस०४-थिरादिछ० -णिमि०तित्थ०-उच्चा० उ० णत्थि अंतरं । अणु० ज० एग०, उ. अंतो० । आहारदुग० उ० अणु० णत्थिं अंतरं । उसके अन्तमुहूर्त काल तक इसका बन्ध नहीं होता, अतः इसके अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त कहा है। ५७३. अपगतवेदी जीवोंमें सब प्रकृतियोंके उत्कृष्ट अनुभागबन्धका अन्तरकाल नहीं है । तथा अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर अन्तमुहूर्त है । विशेषार्थ-पाँच ज्ञानावरण, चार दर्शनावरण, चार संज्वलन और पाँच अन्तरायका उत्कृष्ट अनुभागबन्ध उपशमश्रेणिसे उतरनेवाले अपगतवेदीके अन्तिम समयमें सम्भव है और शेष तीन प्रकृतियोंका उत्कृष्ट अनुभागबन्ध क्षपकश्रेणिमें सम्भव है, अतः सबके उत्कृष्ट अनुभागबन्धके अन्तर का निषेध किया है। तथा उपशान्तमोहमें इनका बन्ध नहीं होता और इसका जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तमहर्त है. अतः यहाँ इनके अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर अन्तमुहूर्त कहा है। ५७४. क्रोधकषायमें पाँच ज्ञानावरण, सात दर्शनावरण, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, चार आयु और पाँच अन्तरायके उत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तमुहूर्त है । अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट पन्लर दो समय है । निद्रा, प्रचला, असातावेदनीय, नौ नोकपाय, तीन गति, चार चाति, औदारिकशरीर. पाँच संस्थान, औदारिक आङ्गोपाङ्ग, छह संहनन, अप्रशस्त वर्णचतुष्क, तीन आनुपूर्वी, उपघात, पातप, अप्रशस्त विहायोगति, स्थावर आदि चार, अस्थिर आदि छह और नीचगोत्रके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागवन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तमुहूर्त है । सातावेदनीय, देवगतिचतुष्क, पञ्चन्द्रियजाति, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, समचतुरस्रसंस्थान, प्रशस्त वर्णचतुष्क, अगुरुलघुत्रिक, उद्योत, प्रशस्त विहायोगति, सचतुष्क, स्थिर आदि छह, निर्माण, तीर्थङ्कर और उच्चगोत्रके उत्कृष्ट अनुभागबन्धका अन्तरकाल नहीं है। अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है। आहारकद्विकके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागवन्धका अन्तरकाल नहीं है। विशेषार्थ-यहाँ प्रथम और द्वितीय दण्डकमें अन्तमुहूर्तके अन्तरसे उत्कृष्ट अनुभागबन्ध १. ता० प्रतौ णस्थि । अंत० अणु० ज० उ० अंतो० । अवगद० सम्वपगदीणं० उ० णत्थि अंत. अणु० उ. ज. अंतो. [एतचिहान्तर्गतः पाठोऽधिक: ] क्रोधे, प्रा. प्रतौ णस्थि अंतरं। अणु० ज० एग०, उ० अंतो०, ज० उक० अंतो०, कोधे इति पाठः । २. ता० प्रती णीचा० उ० प्रणु० ज० ए. उ० । अणु० ज० उ० (?) अंतो० इति पाठः । ३. श्रा० प्रती० उ० गास्थि इति पाठः। ४४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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