Book Title: Mahabandho Part 4
Author(s): Bhutbali, Fulchandra Jain Shastri
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 379
________________ ३५४ महाबंधे अणुभागबंधाहियारे ५८१. असंजदे पंचणा०-छदसणा०-वारसक०-भय-दु०--अप्पसत्थ०४-उप०पंचंत० उ० ओघं । अणु० ज० ए०, उ० बेसम० थीणगिद्धि०३-मिच्छ०-अणंताणुवं०४इत्थिदंडओ गqसगभंगो । सादा०-पंचिंदि०-समचदु०-पर०-उस्सा०-पसत्य०-तस०४थिरादिछ० उ० पत्थि अंतरं । अणु० ओघं । असादा०-पंचणोक०-अथिर--असुभअजस० उ० अणु० ओघं । तिण्णिआयु०-बेउब्वियछ०-मणुसगदिपंचग० उ. अणु० ओघं । देवायु० उ० अणु० ज० ए०, उ. अणंतका० । चदुजादि-आदाव-थावरादिष्ट उ० ओघं। अणु० ज० एग०, उ० तेत्तीसं० सादि०। तेजा०-क०--पसत्थव०४-अगु०णिमि० उ० अणु० णत्थि अंतरं। उज्जो० उ० ओघं । अणु० ज० ए०, उ० तेत्तीसं० देसू० । [तित्थय० उ० ओघं । अणु० ज० उ० अंतो०] उच्चा० उ० अणु० ओघं । विशेषार्थ-जो सामायिक और छेदोपस्थानासंयमके साथ उपशमश्रोणि पर चढ़ता है,उसके नौंवेके आगे संयम बदल जाता है, अतः यहाँ ध्रुववन्धवाली प्रकृतियों के अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धके अन्तरका निषेध किया है। इनका उत्कृष्ट अनुभागबन्ध क्षपकश्रोणिमें होता है, अतः इसका अन्तर काल सम्भव नहीं यह स्पष्ट ही है। शेष प्रकृतियों के उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका जो भङ्ग मनःपर्ययज्ञानीके कहा है वह यहाँ सम्भव है, अतः यह मनापर्ययज्ञानके समान कहा है । सूक्ष्मसाम्परायसंयममें प्रशस्त प्रकृतियोंका क्षपकश्रोणिमें और अप्रशस्त प्रकृतियोंका उतरते समय अन्तिम समयमें उत्कृष्ट अनुभागबन्ध होता है, अतः यहाँ सब प्रकृतियोंके उत्कृष्ट और अनुत्पृष्ट अनुभागवन्धका अन्तर सम्भव न होनेसे उसका निषेध किया है। परिहारविशद्धिसंयतोंके सामायिक छेदोपस्थापना संयतोंके समान और संयतासंयतों के परिहार विशुद्धिसंयतोंके समान अपने-अपने स्वामित्वके अनुसार सब व्यवस्था बन जाती है, अतः यह कथन उनके समान कहा है । मात्र जहाँ जितनी प्रकृतियोंका बन्ध होता है, उसे ध्यानमें लेकर यह व्यवस्था बनानी चाहिए। ५८१. असंयतोंमें पाँच ज्ञानावरण, छह दर्शनावरण, बारह कपाय, भय, जुगुप्सा, अप्रशस्त वर्णचतुष्क, उपघात और पाँच अन्तरायके उत्कृष्ट अनुभागबन्धका अन्तर ओघके समान है। अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर दो समय है । स्त्यानगृद्धि तीन, मिथ्यात्व, अनन्तानुबन्धी चार और स्त्रीवेददण्डकका भङ्ग नपुंसकवेदी जीवोंके समान है। सातावेदनीय, पञ्चन्द्रियजाति, समचतुरस्रसंस्थान, परघात, उच्छ्वास, प्रशस्त विहायोगति, त्रसचतुष्क और स्थिर आदि छहके उत्कृष्ट अनुभागबन्धका अन्तरकाले नहीं है। तथा अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका भङ्ग ओघके समान है। असातावेदनीय, पाँच नोकषाय, अस्थिर, अशुभ और अयशःकीर्तिके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका अन्तर ओघके समान है। तीन आयु, वैक्रियिक छह और मनुष्यगतिपञ्चकके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका अन्तर ओघके समान है। देवायुके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अनन्त काल है। चार जाति, आतप और स्थावर आदि चारके उत्कृष्ट अनुभागबन्धका अन्तर ओघके समान है। अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर साधिक तेतीस सागर है । तैजसशरीर, कार्मणशरीर, प्रशस्त वर्णचतुष्क, अगुरुलघु और निर्माण के उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका अन्तरकाल नहीं है। उद्योतके उत्कृष्ट अनुभागबन्धका अन्तर ओघके समान है। अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तेतीस सागर है। तीर्थङ्कर प्रकृतिके उत्कृष्ट अनुभागबन्धका भङ अोषके समान १. ता. प्रतौ मणुसगदि० (?) उ० इति पाठः । २. ता० श्रा० प्रत्योः चदुसंघ० इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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