Book Title: Mahabandho Part 4
Author(s): Bhutbali, Fulchandra Jain Shastri
Publisher: Bharatiya Gyanpith

View full book text
Previous | Next

Page 369
________________ ३४४ महाबंधे अणुभागबंधाहियारे तेतीस सागर है। तीर्थङ्कर प्रकृतिके उत्कृष्ट अनुभागबन्धका अन्तर नहीं है। अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर अन्तमुहूर्त है। विशेषार्थ-ओघसे पाँच ज्ञानावरणादिके उत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर अनन्त काल कहा है। यह अन्तर नपुंसकवेदीके बन जाता है और नपुंसकवेदकी कायस्थिति अनन्त काल है, अतः यह अन्तर ओघके समान कहा है। इसी प्रकार स्त्यानगृद्धि तीन आदिके उत्कृष्ट अनुभागबन्धका अन्तर ओघके समान घटित कर लेना चाहिए। तथा जोनारकी कम तेतीस सागर काल तक सम्यग्दृष्टि रहता है उसके इनका बन्ध नहीं होता, अत: इनके अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तेतीस सागर कहा है। यहाँ सातावेदनीय आदिका उत्कृष्ट अनुभागबन्ध क्षपकश्रोणिमें होता है, अतः इसके अन्तरका निषेध किया है। इसी प्रकार आगे जिन प्रकृतियोंके उत्कृष्ट अन्तरका निषेध किया है, उसका यही कारण जानना चाहिए । तथा इनके परावर्तमान प्रकृतियाँ होनेसे इनके अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर अन्तमुहूर्त कहा है। असातावेदनीय आदिके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर ओघके समान है । कारण कि इनका एक समयके अन्तरसे और कायस्थितिके प्रारम्भमें और अन्तमें उत्कृष्ट अनुभागबन्ध करानेसे उत्कृष्ट अनुभागबन्धका अन्तर ओघके समान बन जाता है और परावर्तमान प्रकृतियाँ होनसे अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका अन्तर अोधके समान बन जाता है । आठ कषाय आदिके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका अन्तर अलग-अलग जैसा ओघसे कहा है, उसके अविकलरूपसे यहाँ प्राप्त होनेमें कोई बाधा नहीं आती; अतः यह भी ओघके समान कहा है। यद्यपि नपुंसकवेदकी कायस्थिति अनन्तकाल है पर देवायुका उत्कृष्ट अनुभागबन्ध अप्रमत्तसंयत जीवके होता है और देवायुका पूर्वकोटिके त्रिभागके प्रारम्भमें उत्कृष्ट या अनुत्कृष्ट अनुभागबन्ध होनेपर और फिर अन्त में बन्ध होनेपर मनुष्योंके समान कुछ कम पूर्वकोटिका त्रिभागप्रमाण उत्कृष्ट अन्तर घटित हो जाता है। इसलिए यहाँ देवायुके अनुभागबन्धका अन्तर मनुष्योंके समान कहा है । चार जाति आदिके उत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर अनन्तकाल ओघसे बतलाया है। वह यहाँ बन जाता है, अतः यह ओघके समान कहा है। तथा नारकीके और नरकमें जाने के पूर्व और बादमें अन्तमुहूर्त काल तक इनका बन्ध नहीं होता, अतः अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका उत्कृष्ट अन्तर साधिक तेतीस सागर कहा है । औदारिकशरीर आदिके उत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम अर्धपुद्गल परिवर्तन प्रमाण ओघसे बतलाया है. वह यहाँ भी बन जाता है। कारण कि इनका उत्कृष्ट अनुभागवन्ध सर्वविशुद्ध सम्यग्दृष्टि देव नारकीके होता है, : यह अोषके समान कहा है। तथा सम्यग्दृष्टि तिर्यञ्चके इनका बन्ध नहीं होता। पर यहाँ अन्तर लाना है,अतः पूर्वकोटिके आयुवाले तिर्यञ्चको मिथ्यादृष्टि रख कर प्रारम्भमें और अन्त में इनका बन्ध करावे और कुछ कम पूर्वेकोटि काल तक सम्यग्दृष्टि रखकर अबन्धक रखे,तो इस प्रकार इनके अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम एक पूर्वकोटि प्राप्त होनेसे वह उक्त प्रमाण कहा है। आहारकद्विको उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका जो अन्तरकाल ओषसे कहा है वह यहाँ भी बन जाता है, अतः ओघ के समान कहा है। तैजसशरीर आदिका उत्कृष्ट अनुभागबन्ध क्षपकोणिमें होता है और नपुंसकवेदमें इनके अनत्कृष्ट अनुभागबन्धका अन्तर सम्भव नहीं है। कारण कि जो नपुंसकवेदी उपशमश्रेरिणमें इनकी बन्धव्युच्छित्ति करता है, वह यदि लौटकर इनका बन्ध करता है तो बीचमें अपगतवेदी होकर फिर नपुंसकवेदी होने के पूर्व मरकर देव होता है तो नपुंसकवेदी नहीं रहता, अतः यहाँ इनके दोनों प्रकारके अन्तरका निषेध किया है। जो तीर्थङ्कर प्रकृतिका बन्ध करनेवाला नपुंसकवेदी मनुष्य मरकर दूसरे तीसरे नरकमें उत्पन्न होता है, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 367 368 369 370 371 372 373 374 375 376 377 378 379 380 381 382 383 384 385 386 387 388 389 390 391 392 393 394 395 396 397 398 399 400 401 402 403 404 405 406 407 408 409 410 411 412 413 414 415 416 417 418 419 420 421 422 423 424 425 426 427 428 429 430 431 432 433 434 435 436 437 438 439 440 441 442 443 444 445 446 447 448 449 450 451 452 453 454