Book Title: Mahabandho Part 4
Author(s): Bhutbali, Fulchandra Jain Shastri
Publisher: Bharatiya Gyanpith

View full book text
Previous | Next

Page 368
________________ अंतर परूवणा ३४३ ५७२. वंस० पंचणा ० छदंसणा ० चदुसंज० - भय-- दु० -- अप्पसत्य०४ - उप०पंचत० उ० ओघं । अणु० ज० एग०, उ० बेसमं० । श्रीण गिद्धि ०३ - मिच्छ० - अणंताणु ०४ - इत्थि - स ० - तिरिक्ख० पंचसंठा० - पंचसंघ० - तिरिक्खाणु ० -- अप्पसत्यवि०दूर्भाग- दुस्सर- अणादें - णीचा० उ० ओघं । अणु० ज० एग०, उ० तैतीस देसू० । सादा० पंचिंदि० - समचदु० -- पर० - उस्सा ० - पसत्थ० --तस०४ - थिरादिछ० उ० णत्थि अंतरं । अणु० ज० एग०, उ० अंतो० । असादा० - पंचणोक० अथिर- असुभ-अजस उ० अणु० ओघं । अट्ठक० - तिण्णिआयु० -- वेडव्वियछ ० -- मणुस ० - मणुसाणु ० - उच्चा० [ उक्क० ] अणु • ओघं । देवायु० मणुसभंगों । चदुजा० आदाव थावरादि०४ उक्क० ओघं । अणु० ज० एग०, उ० तेत्तीस ० सादि० । ओरालि० - ओरालि० अंगो० वज्जरि० उ० ओघं । अणु० ज० एग०, उ० पुव्वकोडी दे० । आहारदुगं उ० अणु० ओघं । [ तेजा ० क ०-पसत्थवण्ण४ - अगु० - णिमि० उक्क० अणुक० णत्थि अंतरं । ] उज्जो ० उ० ओघं । अणु० ज० ए०, उ० तैंतीसं० सू० । तित्थ० उ० णत्थि अंतरं । अणु० ज० उ० तो ० । ० I ५७२. नपुंसकवेदी जीवोंमें पाँच ज्ञानावरण, छह दर्शनावरण, चार संज्वलन, भय, जुगुप्सा, अप्रशस्त वर्णचतुष्क, उपघात और पाँच अन्तराय के उत्कृष्ट अनुभागबन्धका अन्तर ओघ के समान है । अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर दो समय है । स्त्यानगृद्धि तीन, मिथ्यात्व अनन्तानुबन्धी चार, स्त्रीवेद, नपुंसकवेद, तिर्यञ्चगति, पाँच संस्थान, पाँच संहनन, तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वी, अप्रशस्त विहायोगति, दुर्भग, दुःस्वर, अनादेय और नीचगोत्रके उत्कृष्ट अनुभागबन्धका अन्तर ओघ के समान हैं । अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तेतीस सागर है । सातावेदनीय, पश्चन्द्रियजाति, समचतुरस्त्रसंस्थान, परघात, उच्छ्वास, प्रशस्त विहायोगति, त्रसचतुष्क और स्थिर आदि छहके उत्कृष्ट अनुभागबन्धका अन्तर काल नहीं है । अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है । असातावेदनीय, पाँच नोकपाय, अस्थिर, अशुभ और अयश:कीर्ति के उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका अन्तर के समान है। आठ कपाय, तीन आयु, वैक्रियिक छह, मनुष्यगति, मनुष्यगत्यानुपूर्वी, और उच्चगोत्र के उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका अन्तर ओघ के समान है । देवशयुका भङ्ग मनुष्य के समान है । चार जाति, तप, और स्थावर आदि चारके उत्कृष्ट अनुभागबन्धका अन्तर ओघ के समान है । अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर साधिक तेतीस सागर है । औदारिक शरीर, औदारिक आङ्गोपाङ्ग और वज्रर्षभनाराचसंहननके उत्कृष्ट अनुभागबन्धका अन्तर ओके समान है । अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम एक पूर्वकोटि है । आहारक द्विकके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका भङ्ग समान है । तैजसशरीर, कार्मणशरीर, प्रशस्त वर्णचतुष्क, अगुरुलघु और निर्माणके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका अन्तर काल नहीं है । उद्योतके उत्कृष्ट अनुभागवन्धका अन्तर ओघके समान है। अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर १. ता० प्रतौ ए० बेसम० इति पाठः । २. ता० प्रा० प्रत्योः उच्चा० अणु० इति पाठः । ३. ता० श्रा० प्रत्योः मणुसादिभंगो इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 366 367 368 369 370 371 372 373 374 375 376 377 378 379 380 381 382 383 384 385 386 387 388 389 390 391 392 393 394 395 396 397 398 399 400 401 402 403 404 405 406 407 408 409 410 411 412 413 414 415 416 417 418 419 420 421 422 423 424 425 426 427 428 429 430 431 432 433 434 435 436 437 438 439 440 441 442 443 444 445 446 447 448 449 450 451 452 453 454