Book Title: Mahabandho Part 4
Author(s): Bhutbali, Fulchandra Jain Shastri
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 362
________________ अंतरपरूवणा ३३७ देवगदि ०४ - [ तेजा० क० - पसत्यापसत्थवण्ण४ - ] अगु० - उप० - णिमि० - तित्थ० - पंचंत० उ० अणु० णत्थि अंतरं । आयु० अपज्जत्तभंगो । सेसाणं उ० णत्थि अंतरं । अणु० ज० एग०, उ० अंतो० । एवं वेडव्वियमि० आहारमि० । णवरि अप्पप्पणो पगदीओ भाणिदव्वाओ । आहारमि० देवायु० उ० णत्थि अंतरं । वेडव्वियका ० - आहारको ० मणजोगिभंगो । कम्मइ० सव्वाणं उ० अणु० णत्थि अंतरं । णवरिं सादासाद०चदुणोक० - आदाउज्जो ०-थिराथिर - सुभासुभ-जस ० - अजस० उ० णत्थि अंतरं । अणु० एग | एवं अणाहार० । सोलह कषाय, भय, जुगुप्सा, देवगतिचतुष्क, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, प्रशस्त वर्णचतुष्क, अप्रशस्त वर्णचतुष्क, अगुरुलघु, उपघात निर्माण, तीर्थङ्कर और पाँच अन्तरराय के उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका अन्तरकाल नहीं है। आयुकर्मका भङ्ग अपर्याप्तकों के समान है। शेष प्रकृतियोंके उत्कृष्ट अनुभागबन्धका अन्तरकाल नहीं है । अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और अन्तर अनुत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त है । इसी प्रकार वैक्रियिकमिश्रकाययोगी और आहारकमिश्रकाययोगी जीवोंके जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि अपनी-अपनी प्रकृतियाँ 'कहलवाना चाहिए | तथा आहारक मिश्रकाययोगमें देवायुके उत्कृष्ट अनुभागबन्धका अन्तरकाल नहीं है। वैक्रियिककाययोगी और आहारककाययोगी जीवों में मनोयोगी जीवोंके समान भङ्ग है। कार्मणकाययोगी जीवोंमें सब प्रकृतियोंके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका अन्तरकाल नहीं है । इतनी विशेषता है कि सातावेदनीय, असातावेदनीय, चार नोकपाय, तप, उद्योत, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, यशःकीर्ति और अयशःकीर्तिके उत्कृष्ट अनुभागबन्धका अन्तर कल नहीं है । तथा अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर एक समय है । इसी प्रकार अनाहारक जीवों के जानना चाहिए । विशेपार्थ - औदारिक मिश्रकाययोगका काल बहुत थोड़ा है। इसमें प्रथम दण्डकमें कही गई व अन्य प्रकृतियों का उत्कृष्ट अनुभागबन्ध उत्कृष्ट संक्लेश परिणामवाले, तत्प्रायोग्य संक्लेश परिणामवाले, सर्वविशुद्ध व तत्प्रायोग्य विशुद्ध जीवके होता है, अतः दो आयुओं को छोड़कर सबके उत्कृष्ट अनुभागबन्धके अन्तरकालका निषेध किया है, क्योंकि ऐसे परिणाम पर्याप्त योगके सन्मुख हुए जीवके अन्तिम समय में ही सम्भव हैं । तथा प्रथम दण्डकमें कही गई प्रकृतियाँ ध्रुवबन्धिनी हैं । यद्यपि प्रथम दण्डकमें कही गई प्रकृतियोंमें देवगतिचतुष्क भी है, पर औदारिकमिश्रकाययोगी सम्यग्दृष्टिके ये ध्रुवबन्धिनी ही हैं। इसी प्रकार जिसके तीर्थङ्कर प्रकृतिका बन्ध होता है, उसके वह भी ध्रुववन्धिनी है, अतः इनके अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धके अन्तरकालका भी निपेध किया है । औदारिकमिश्रकाययोग में अपर्याप्तकों के ही दो आयुओं का बन्ध होता है, अतः इनका कथन अपर्याप्तकोंके समान किया है। अब शेष रही परावर्तमान प्रकृतियाँ सो इनके अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका जवन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है, यह स्पष्ट ही हैं। वैक्रियिकमिश्रकाययोग और आहारकमिश्रकायोग में यह अन्तर इसी प्रकार है सो इसका यह अभिप्राय है कि इन दोनों योगों में जो ध्रुववन्धिनी प्रकृतियाँ हैं, उनके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका तो अन्तर है नहीं। हाँ जो परावर्तमान प्रकृतियाँ हैं, उनके उत्कृष्ट अनुभागबन्धका अन्तर न होकर मात्र अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर मुहूर्त है । पर इस प्रकार देवायुके उत्कृष्ट अनुभागबन्धका अन्तर प्राप्त होता है, इसलिए १. ता० आ० प्रत्योः अंतरं । एवं श्रणाहार० णवरि इति पाठः । ४३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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