Book Title: Mahabandho Part 4
Author(s): Bhutbali, Fulchandra Jain Shastri
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 355
________________ ३३० महाबंधे अणुभागबंधाहियारे पगदिअंतरं । सेसाणं० उ० णाणावभंगो। अणु० ज० एग०, उ० अंतो। ५६४.पंचिंदि०-तस०२ पंचणा०-छदंसणा०-असाद०-चदुसंज०-सत्तणोक०-अप्पसत्थ०४-उप०-अथिर-असुभ-अजस०-पंचंत० उ० ज० एग०, उक्क० कायहिदी। अणु० ज० एग०, उ० अंतो० । थीणगिदि०३-मिच्छ०-अणंताणुबं०४-इत्थि० उ. णाणा० भंगो। अणु० ओघं । सादा०-पंचिंदि०-तेजा-क०-समचदु०-पसत्य०४-अगु०३. पसत्थवि०-तस०४-थिरादिछ०-णिमि०-तित्थ० उक्क० णत्थि अंतरं । अणु० ओघं। अहक० उ० णाणाभंगो । अणु० ओघं । णqसग०-पंचसंठा०-पंचसंघ०-अप्पसत्य:दूभग-दुस्सर-अणा-णीचा० उ० णाणाभंगो। अणु० ओघं । तिण्णिआयु० उ० णाणा०भंगो। अणु० ज० एग०, उ० सागरोवमसदपुध० । मणुसायु० उ० अणु० ज० एग०, उ० णाणाभंगो । पजचे चदुआयु० उ० अणु० ज० एग०, उ० सागरोअनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर प्रकृतिबन्धके अन्तर के समान है। शेष प्रकृतियोंके उत्कृष्ट अनुभागबन्धका अन्तर ज्ञानावरणके समान है। अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तमहर्त है। विशेषार्थ-विकलेन्द्रियोंकी कायस्थिति संख्यात हजार वर्ष है, इसलिए इनमें मनुष्यायुके सिवा शेष सब प्रकृतियोंके उत्कृष्ट अनुभागबन्धका उत्कृष्ट अन्तर उक्त प्रमाण कहा है। मात्र कायस्थितिके प्रारम्भमें और अन्तमें उत्कृष्ट अनुभागबन्ध कराके यह अन्तर ले आना चाहिए। तथा तिर्यञ्चायुके अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका उत्कृष्ट अन्तर और मनुष्यायुके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका उत्कृष्ट अन्तर प्रकृतिबन्धके अन्तरके समान है सो प्रकृतिबन्धमें यहाँ इन प्रकृतियोंके अन्तरको देखकर यह खुलासा कर लेना चाहिए। शेष कथन सुगम है। ५६४. पञ्चन्द्रियद्विक और त्रसद्विक जीवोंमें पाँच ज्ञानावरण, छह दर्शनावरण, असातावेदनीय, चार संज्वलन, सात नोकषाय, अप्रशस्त वर्णचतुष्क, उपघात, अस्थिर, अशुभ, अयश:कीर्ति और पाँच अन्तरायके उत्कृष्ट अनुभागवन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर कायस्थिति प्रमाण है। अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य अन्त एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तमुहूर्त है। स्त्यानगृद्धि तीन,मिथ्यात्व, अनन्तानुबन्धी चार और स्त्रीवेदके उत्कृष्ट अनुभागबन्धका अन्तर ज्ञानावरणके समान है। तथा अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका अन्तर ओघके समान है। सातावेदनीय, पञ्चन्द्रियजाति, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, समचतुरस्रसंस्थान, प्रशस्त वर्णचतुष्क, अगुरुलघुत्रिक, प्रशस्त विहायोगति, त्रसचतुष्क, स्थिर आदि छह, निर्माण और तीर्थङ्करके उत्कृष्ट अनुभागबन्धका अन्तर नहीं है। अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका अन्तर ओघके समान है। आठ कपायोंके उत्कृष्ट अनुभागबन्धका अन्तर ज्ञानावरण के समान है। तथा अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका अन्तर ओघके समान है। नपुंसकवेद, पाँच संस्थान, पाँच संहनन, अप्रशस्त विहायोगति, दुर्भग, दुःस्वर, अनादेय और नीचगोत्रके उत्कृष्ट अनुभागवन्धका अन्तर ज्ञानावरणके समान है। तथा अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका अन्तर ओघके समान है। तीन आयुओंके उत्कृष्ट अनुभागबन्धका उत्कृष्ट अन्तर ज्ञानावरणके समान है । अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर सौ सागर पृथक्त्वप्रमाण है। मनुष्यायुके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर ज्ञानावरणके समान है। पयप्तिकोंमें १. प्रा. प्रती भंगो । अणु० ज० एग०, उ० पगदिअंतरं । सेसाणं इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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