Book Title: Mahabandho Part 4
Author(s): Bhutbali, Fulchandra Jain Shastri
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 331
________________ महाबंधे अणुभागबंधाहियारे G ५४५ तेऊए पंचणा०--छदंसणा ०-- बारसक ०--भय-- दु० -- अप्पसत्थ०४ – उप० - पंचंत० ज० एग० । अज० ज० अंतो०, उक्क० बेसाग० सादि० । श्रीणगिद्धि०३मिच्छ० - अनंताणुबंधि०४ ज० [एग०] । अज० [ज०] एग० तो ०, उक्क० णाणा ०भंगो | सादासाद० - तिण्णिआयु० - तिरिक्खग०--एइंदि०-- पंचसंठा०--पंच संघ० -- तिरिक्खाणु०-अप्पसत्थ०-शोवर-थिरादितिष्णियुग०-दूभग- दुस्सर - अणादें - णीचा ० जे०ज० एग०, उक्क० चत्तारि सम० । अज० ज० एग०, उक्क० तो ० । इत्थि० णवुंस० - अरदिसोग - देव गदि ०४ - आदाउज्जो० ज० ज० ए०, उ० बेसम० । अज० ज० एग०, उक्क० अंतो० ० । पुरिस० ज० एग० । अज० ज० एग०, उक्क० णाणा० भंगो । हस्स-रदिआहारदुगं ओघं । मणुस ०-समचदु० वज्जरि ० मणुसाणु ०-पसत्थ० - सुभग-सुस्सर-आदें०उच्चा० ज० ज० ए०, उक्क० चत्तारि सम० । अज० ज० एग०, उक्क० बे सा० सादि० । पंचिंदि० --ओरालि०--तेजा ०-- क ०--ओरालि० गो० - पसत्थ०४ - अगु० ३ 0 ३०६ और सब काल तो कृष्ण लेश्या के समान है । मात्र दो विशेषताएँ हैं । प्रथम तो यह कि जहाँ कृष्ण लेश्याका उत्कृष्ट काल लिया है, वहाँ नील और कापोत लेश्याका काल कहना चाहिए । दूसरे तीर्थङ्कर प्रकृतिका काल अपने - अपने स्वामित्व के अनुसार कहना चाहिए जो मूलमें कहा ही है। ५४५. पीतलेश्यामें पाँच ज्ञानावरण, छह दर्शनावरण, बारह कपाय, भय, जुगुप्सा अप्रशस्त वर्णचतुष्क, उपघात और पाँच अन्तरायके जघन्य अनुभागबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है । अजघन्य अनुभागबन्धका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट काल साधिक दो सागर है । स्त्यानगृद्धितीन, मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धी चारके जघन्य अनुभागबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है । अजघन्य अनुभागबन्धका जघन्य काल एक समय और अन्तर्मुहूर्त है। तथा उत्कृष्ट काल ज्ञानावरण के समान है । सातादेदनीय, असातावेदनीय, तीन आयु, तिर्यञ्चगति, एकेन्द्रियजाति, पाँच संस्थान, पाँच संहनन, तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वी, अप्रशस्त विहायोगति, स्थावर, स्थिर आदि तीन युगल, दुभंग, दुःस्वर, अनादेय और नीचगोत्रके जघन्य अनुभागबन्धका जघन्य काल एक समय हैं और उत्कृष्ट काल चार समय है । अजघन्य अनुभागबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है । स्त्रीवेद, नपुंसकवेद, अरति, शोक, देवगतिचतुष्क, आतप और उद्योतके जघन्य अनुभागबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल दो समय है । अजघन्य अनुभागबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तमुहूर्त है । पुरुषवेद के जघन्य अनुभागबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है । अजघन्य अनुभागबन्धका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल ज्ञानावरण के समान । हास्य, रति और आहारकद्विकका भङ्ग ओघके समान है । मनुष्यगति, समचतुरस्रसंस्थान, वज्रर्षभनाराचसंहनन, मनुष्यगत्यानुपूर्वी, प्रशस्त विहायोगति, सुभग, सुस्वर, आदेय और उच्चगोत्रके जघन्य अनुभागबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल चार समय है । अजघन्य अनुभागबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल साधिक दो. सागर है। पञ्च ेन्द्रियजाति, औदारिकशरीर, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, औदारिक आङ्गोपाङ्ग, प्रशस्त १. श्रा० प्रतौ श्रणादे० ज० इति पाठः । २. ता० प्रती बेस० साग० इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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