Book Title: Mahabandho Part 4
Author(s): Bhutbali, Fulchandra Jain Shastri
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 335
________________ ३१० महाबंधे अणुभागबंधाहियारे ओघं । मणुसगदिपंचग० ज० ज० एग०, उक्क० बेसम० । अज० ज० एग०, उक्क० तैतीसं । देवगदि०४ ज० ज० एग०, उक्क० बेसम० । अज० ज० एग०, उक्क० तिण्णि पलि. सादि० । पंचिंदि०-तेजा-क०-समचदु०-पसत्थ०४-अगु०३-पसत्थवि०तस०४-सुभग-मुस्सर-आदें-णिमि०-उच्चा० ज० ज० एग०, उक्क० बेसम० ! अज० ज० एग०, उक्क० तेत्तीसं० सादि० । तित्थकरं एवं चेव । ५४६. वेदगे पंचणा०-छदंसणा०-बारसक० पुरिस० भय-दु०-पंचिंदि०-तेजा०क०--समचदु०--पसत्थापसत्थ०४-अगु०४-पसत्थ०--तस०४-सुभग--सुस्सर--आदें-- णिमि०-उच्चा०-पंचंत० ज० एग। अज० ज० अंतो०, उक० छावहि०। अपच्चक्खाणा०४ तेत्तीसं सादि । पञ्चक्खाणा०४ बादालीसं० सादि० । सादासाद०दोआयु०-तिण्णियुग० ज० अज० ओघं । देवगदि०४ ज० एग० । अज० [ ज० ] जघन्य और अजघन्य अनुभागबन्धका काल ओघ के समान है। हास्य, रतिचतुष्क और आहारकद्विकका भङ्ग ओघ के समान है। मनुष्यगति पञ्चकके जघन्य अनुभागबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल दो समय है। अजघन्य अनुभागबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल तेतीस सागर है। देवगति चतुष्कके जघन्य अनुभागबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल दो समय है। अजघन्य अनुभागबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल साधिक तीन पल्य है। पञ्चोन्द्रियजाति, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, समचतुरस्रसंस्थान, प्रशस्त वर्णचतुष्क, अगुरुलघुत्रिक, प्रशस्त विहायोगति, सचतुष्क, सुभग, सुस्वर, आदेय, निर्माण और उच्चगोत्रके जघन्य अनुभागबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल दो समय है। अजघन्य अनुभागबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल साधिक तेतीस सागर है । तीर्थङ्कर प्रकृतिका भङ्ग इसी प्रकार है। विशेषार्थ-यहाँ पाँच ज्ञानावरणादि ३६, पञ्चन्द्रियजाति आदि २१ और जिनके बन्ध होता है उनके तीर्थङ्कर ये ५८ प्रकृतियाँ ध्रुवबन्धिनी हैं, अतः इनके अजघन्य अनुभागबन्धका उत्कृष्ट काल साधिक तेतीस सागर कहा है, क्योंकि संसार अवस्थामें इतने काल तक क्षायिक सम्यक्त्वकी उपलब्धि होती है । प्रथम दण्डकमें कही गई प्रकृतियोंके स्वामित्वको देखनेसे विदित होता है कि उनके जघन्य अनुभागबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है, अतः इनके अजघन्य अनुभागबन्धका जघन्य काल अन्तमुहूर्त कहा है, क्योंकि क्षायिकसम्यक्त्वका जघन्य काल ही अन्तमुहूर्त है। दूसरे असंयत और संयमासंयम आदि गुण स्थानोंका जघन्य काल भी अन्तमुहूर्त है। शेष प्रकृतियोंके कालका स्पष्टीकरण आभिनिबोधिकज्ञानी जीवोंके जैसा किया है, उसी प्रकार यहाँ भी कर लेना चाहिए। ५४६. वेदकसम्यग्दृष्टि जीवोंमें पाँच ज्ञानावरण, छह दर्शनावरण, बारह कपाय पुरुषवेद, भय, जुगुप्सा, पञ्चन्द्रियजाति, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, समचतुरस्रसंस्थान, प्रशस्त वर्णचतुष्क, अप्रशस्त वर्णचतुष्क, अगुरुलघुचतुष्क, प्रशस्त विहायोगति, त्रसचतुष्क, सुभग, सुस्वर, आदेय, निर्माण उच्चगोत्र और पाँच अन्तरायके जघन्य अनुभागबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है । अजघन्य अनुभागबन्धका जघन्य काल अन्तमुहूर्त है और उत्कृष्ट काल छियासठ सागर है। किन्तु अप्रत्याख्यानावरण चारका साधिक तेतीस सागर और प्रत्याख्यानावरण चारका साधिक ब्यालीस सागर है। सातावेदनीय, असातावेदनीय, दो आयु और तीन युगलके जवन्य और १. ता० प्रा० प्रत्योः णिमि० तित्थ० उच्चा० इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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