Book Title: Mahabandho Part 4
Author(s): Bhutbali, Fulchandra Jain Shastri
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 325
________________ ३०० महाबंध अणुभागबंधाहियारे 0 ज० एग०, उक्क० चत्तारिसम० । अज० ज० एग०, उ० ऍकत्तीस ० सादि० | देवग समचदु० -- देवाणु००--पसत्थ० - सुभग--सुस्सर - आदेज्ज - - जस ० -- उच्चा० ज० ज० एग०, उ० [चत्तारिसम० | अज० ज० एग०, उ०] तिष्णिपलि० सू० । पंचिदि० -ओरालि०अंगो०० पर० -- उस्सा ० -- तस४ ज० ज० एग०, उ० बेसम० । अज० ज० एग०, तेत्तीस सा० सादि० । ओरालि० -- तेजा०-- क० --पसत्थ०४ - अगु० - णिमि० ओघं । वेउव्व० - वेडव्वि ० गो० ज० ज० एग०, उ० बेसम० । अज० देवगदिभंगो | O ५४०. विभंगे पंचणाणावरणादि याव पंचतराइग ति ज० एग० अज० ज० और उत्कृष्ट काल एक समय है । अजघन्य अनुभागबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है । मनुष्यगति और मनुष्यगत्यानुपूर्वीके जघन्य अनुभागबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल चार समय है । अजघन्य अनुभागबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल साधिक इकतीस सागर है। देवगति, समचतुरस्रसंस्थान, देवगत्यानुपूर्वी, प्रशस्त विहायोगति, सुभग, सुस्वर, आदेय, यशःकीर्ति और उच्चगोत्र के जघन्य अनुभागबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल चार समय है । अजघन्य अनुभागबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल कुछ कम तीन पल्य है । पञ्चेन्द्रिय जाति, औदारिक आङ्गोपाङ्ग, परघात, उच्छ्वास, और न सचतुष्कके जघन्य अनुभागबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल दो समय है । अजघन्य अनुभागबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल साधिक तेतीस सागर है । औदारिकशरीर, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, प्रशस्त वर्ण चतुष्क, अगुरुलघु और निर्माणका भङ्ग ओघ के समान है। वैक्रियिकशरीर और वैकयिक आङ्गोपाङ्गके जघन्य अनुभागबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल दो समय है । अजघन्य अनुभागबन्धका भङ्ग देवगतिके समान है । उ० विशेषार्थ - - पाँच ज्ञानावरण दण्डक, सातावेदनीय दण्डक और स्त्रीवेद आदिका जो काल ओघसे कहा है वह यहां अविकल बन जाता है, इसलिए यह ओघ के समान कहा है । पुरुषवेदका सम्यक्त्वके सन्मुख हुए जीवके जघन्य अनुभागबन्ध होता है, इसलिये यह जघन्य और उत्कृष्ट एक समय कहा हैं । तथा परावर्तमान प्रकृति होनेसे इसके अजघन्य अनुभागबन्धका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त कहा है। मनुष्यगतिद्विकका जघन्य अनुभागबन्ध नौवें ग्रैवेयक में और वहाँ से आनेके बाद अन्तर्मुहूर्त काल तक होता है, इसलिए उत्कृष्ट रूपसे यह साधिक इकतीस सागर कहा है । देवगति आदिका भोगभूमि में पर्याप्त अवस्था होनेपर नियम से बन्ध होता है, इसलिए इनके अजघन्य अनुभागबन्धका उत्कृष्ट काल कुछ कम तीन पल्य कहा है । पचन्द्रिय जाति आदिका सातवें नरकमें और वहाँ से निकलने बाद अन्तर्मुहूर्त काल तक नियम से बन्ध होता है, अतः इनके अजघन्य अनुभागबन्धका उत्कृष्ट काल साधिक तेतीस सागर कहा है । ओघ से दारिकशरीर आदिका जो काल कहा है वह यहाँ अविकल बन जाता है, इसलिए वह ओघके समान कहा है। वैक्रियिकद्विकका बन्ध देवगतिके साथ होता है, अतः इनके अजधन्य अनुभागबन्धका काल देवगतिके समान कहा है । ५४०. विभङ्गज्ञानी जीवोंमें पाँच ज्ञानावरण आदिसे लेकर पाँच अन्तराय तककी प्रकृतियों के जघन्य अनुभागबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है । अजघन्य अनुभागबन्धका जघन्य १. ता० प्रतौ एग० तेत्तीसं इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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