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सामित्तपरूवणा
१ १२ सामित्तपरूवणा ४०५. एत्तो सामित्तस्स कच्चे' तत्थ इमाणि तिण्णि-पच्चयपरूवणा विपाकदेसो' पसत्यापसत्थपरूवणा त्ति ।
४०६. पचयपरूवणदाए पंचणा०-छदंसणा-असादा०-अट्ठक०-पुरिस०-हस्स-रदिअरदि-सोग-भय-दुगुं० देवाउ०-देवदि-पंचिंदि०-वेउवि तेजा०-क-समचदु०-वेउव्विय० अंगो०-पसस्थापसत्थवण्ण०४-देवाणुपु०-अगु०४-पसत्थवि०-तस०४-थिराथिरसुभासुम-सुभग-सुस्सर-आदे०-जस०-अजस०-णिमि०-उच्चागो०-पंचंत०६५ एत्तो एक्क्कस्स पगदीओ मिच्छत्तपच्चयं असंजमपञ्चयं कसायपञ्चयं । सादावे० मिच्छत्तपच्चयं परिणामोंसे करता है। यतः इसकी प्राप्ति अन्तर देकर पुनः-पुनः सम्भव है और उत्कृष्टके बाद अनुत्कृष्ट अनुभागवन्ध भी इसी प्रकार होता रहता है। अतः इन पूर्वोक्त प्रकृतियोंका उत्कृष्ट
और अनुत्कृष्ट अनुभागबन्ध सादि और अध्रवके भेदसे दो प्रकारका कहा है। तैजसशरीर, कार्मणशरीर, प्रशस्त वर्णचतुष्क, अगुरुलघु और निर्माण इनका क्षपक अपूर्वकरणके अपनी व्युच्छित्तिके अन्तम समयमें उत्कृष्ट अनुभागबन्ध होता है, इसलिए वह सादि और अध्रव होनेसे इन आठ प्रकृतियों के उत्कृष्ट अनुभागबन्धको सादि और अध्रुव कहा है। तथा इनके उत्कृष्ट अनुभागबन्धके प्राप्त होनेके पूर्व इन सब प्रकृतियोंका अनुत्कृष्ट अनुभागबन्ध होता है जो उपशम श्रेणी में अपनी बन्ध व्युच्छित्तिके पूर्वतक अनादि है और व्युच्छित्ति होने के बाद लौटकर पुनः इनका अनुत्कृष्ट अनुभागवन्ध होनेपर वह सादि है। ध्रुव और अध्रुव भंग पहलेके समान हैं। इस प्रकार इन आठ प्रकृतियों के अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धमें सादि आदि चारों विकल्प घटित हो जानेसे वह चार प्रकारका कहा है। अब रहे इन आठ प्रकृतियोंके जघन्य और अजघन्य अनुभागबन्ध सो इनकाजघन्य अनुभागबन्ध चारों गतिके मिथ्यादृष्टि जीवके उत्कृष्ट संक्लेश परिणामोंसे होता है। यतः इसकी प्राप्ति अन्तर देकर पुनः-पुनः सम्भव है और जघन्यके बाद उसी क्रमसे इनका अजघन्य अनुभागबन्ध होता है। अतः इन आठ प्रकृतियोंका जघन्य और अजघन्य अनुभागवन्ध सादि और अध्रुवके भेदसे दो प्रकारका कहा है । यह सैंतालीस ध्रुव बन्धवाली प्रकृतियों का विचार है । इनके अतिरिक्त जो ७३ अध्रुव बन्धवाली प्रकृतियाँ हैं, उनका बन्ध कादाचित्क होनेसे उनके उत्कृष्ट आदि चारों प्रकारके अनुभागबन्ध सादि और अध्रुवके भेदसे दो प्रकार के होते हैं, यह कहा है।
१२ स्वामित्वप्ररूपणा ४०५. इससे आगे स्वामित्वका प्रकरण है। उसमें ये तीन अनुयोगद्वार होते हैं-प्रत्ययप्ररूपणा, विपाकदेश और प्रशस्ताप्रशस्तप्ररूपणा ।
४०६. प्रत्ययप्ररूपणाकी अपेक्षा पाँच ज्ञानावरण, छह दर्शनावरण, असातावेदनीय, पाठ कषाय, पुरुषवेद, हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, देवायु, देवगति, पश्चेन्द्रियजाति, वैक्रियिकशरीर, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, समचतुरस्रसंस्थान, वैक्रियिकाङ्गोपाङ्ग, प्रशस्त और अप्रशस्त वर्णचतुष्क, देवगत्यानुपूर्वी, अगुरुलघुचतुष्क, प्रशस्तविहायोगति, सचतुष्क, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, सुभग, सुस्वर, आदेय, यशाकीर्ति, अयशाकीर्ति, निर्माण, उच्चगोत्र और पाँच अन्तराय इन पैंसठ प्रकृतियोंमेंसे प्रत्येक प्रकृतिका बन्ध मिथ्यात्यप्रत्यय, असंयमप्रत्यय और
२ ता. प्रतौ विपाकदेसू० इति पाठः।
३ ता.भा.
ता. प्रतौ कच्चे (१) इति पाठः। प्रत्योः चदु०वेडब्बिय-वेउम्विय० इति पाठः ।
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