Book Title: Mahabandho Part 4
Author(s): Bhutbali, Fulchandra Jain Shastri
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 298
________________ कालपरूवणा २७३ अणु० ज० ए०, उ० अंतो० । __५१५. आहारगेसु पंचणा०-णवदंसणा-मिच्छत्त-सोलसक०-भय-दु०-तिरिक्व०ओरालि०-अप्पसत्थ०४-तिरिक्खाणु०-उप०-णीचा०-पंचंत०- उ० ओघं। अणु० ज० ए०, उ० अंगुल० असंखें। तेजइगादीणं पि उ० ओघं । अणु० जाणा०भंगो० । सेसाणं पि ओघमंगों'। तित्थ० उ० ए० । अणु० ज० ए०, उ० तेत्तीसं. सादि० । अणाहारा० कम्मइगभंगो । एवं उक्कस्सकालं समत्तं । ५१६. जहण्णए पगदं । दुवि०-ओघे० आदें। ओघे० पंचणा०-णवदंसणा०मिच्छ०--सोलसक०--भय-दु०-अप्पसत्थवण्ण०४-उप०-पंचंत० जह० एग० । अज० समान है। शेष प्रकृतियोंके उत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल दो सग्य है। अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। विशेषार्थ-असंज्ञियों में एकेन्द्रियोंकी मुख्यता है, इसलिए इनमें पाँच ज्ञानावरणादि प्रथम दण्डकमें कही गई प्रकृतियों के अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका उत्कृष्ट काल अनन्त काल कहा है। शेष कथन सुगम है। ५१५. आहारक जीवोंमें पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, भय, जुगुप्सा, तिर्यश्चगति, औदारिकशरीर, अप्रशस्त वर्णचतुष्क, तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वी, उपघात, नीचगोत्र और पाँच अन्तरायके उत्कृष्ट अनुभागबन्धका काल ओघके समान है। अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अंगुलके असंख्यातवें भागप्रमाण है। तैजसशरीर आदि प्रकृतियोंके भी उत्कृष्ट अनुभागबन्धका काल ओघके समान है। अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका काल ज्ञानावरणके समान है। शेष प्रकृतियोंके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका काल भी ओघके समान है । तीर्थङ्कर प्रकृतिके उत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है। अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल साधिक तेतीस सागर है। अनाहारक जीवोंमें कार्मणकाययोगी जीवोंके समान भङ्ग है। विशेषार्थ-आहारक जीवोंकी उत्कृष्ट कायस्थिति अंगुलके असंख्यातवें भाग प्रमाण होनेसे इनमें पाँच ज्ञानावरणादि और तेजसशरीर आदिके अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका उत्कृष्ट काल अंगुल. के असंख्यातवें भागप्रमाण कहा है। तीर्थङ्कर प्रकृतिका उत्कृष्ट अनुभागवन्ध क्षपकश्रेणिके अपूर्वकरण में अपनी बन्धव्युच्छित्तिके अन्तिम समयमें होता है, इसलिए इसके उत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय कहा है। तथा इसका निरन्तर बन्ध सर्वार्थसिद्धिमें और उसके आगे पीछेकी मनुष्य पर्यायमें सम्भव है, इसलिए इसके अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका उत्कृष्ट काल साधिक तेतीस सागर कहा है। शेष कथन सुगम है। __ इस प्रकार उत्कृष्ट काल समाप्त हुआ। ५१६. जघन्य कालका प्रकरण है। उसकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश। ओघसे पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण. मिथ्यात्व, सोलह कषाय, भय, जुगुप्सा, अप्रशस्त वर्णचतुष्क, उपघात और पाँच अन्तरायके जघन्य अनुभाग बन्धका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक १. ता० प्रतौ सेसाणं श्रोधभंगो इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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