Book Title: Mahabandho Part 4
Author(s): Bhutbali, Fulchandra Jain Shastri
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 302
________________ कालपरूवणा २७७ ५१७. णिरएसु धुविगाणं उकस्सभंगो। थीणगिद्धि०३-मिच्छ०-अणंताणु० बंधि०४-तिरिक्ख०-तिरिक्वाणु'०-णीचा० ज० एग० । अज० ज० एग०, उ० तेतीसं० । णवरि मिच्छ० अज० ज० अंतो० । सादादीणं ओघभंगो । इत्थि-णस०चदुणोक०-उज्जो० ज० ज० एग०, उक्क० बेसम० । अज० ज० एग०, उक्क० अंतो०। खुलासा अनुत्कृष्टके समान है। औदारिकशरीर आदिके अजघन्य अनुभागबन्धके उत्कृष्ट कालको छोड़कर शेष सब खुलासा पञ्चन्द्रिय जाति आदि प्रकृतियोंके समान कर लेना चाहिए। मात्र इनका निरन्तर बन्ध एकेन्द्रियोंके सदा काल होता रहता है और उनकी कायस्थिति अनन्त काल है, इसलिए इनके अजघन्य अनभागवन्धका उत्कृष्ट काल उक्त प्रमाण कहा है। वैक्रियिकद्विक भी सप्रतिपक्ष प्रकृतियाँ होनेके साथ सर्व संक्लिष्ट परिणामोंसे जघन्य अनुभागबन्धको प्राप्त होती हैं, इसलिए इनके जघन्य अनुभागबन्धका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल दो समय वहा है। तथा इनका देवगतिके साथ मनुष्य सम्यग्दृष्टिके अधिक काल तक बन्ध होता है, इसलिए इनके अजघन्य अनुभागबन्धका काल देवगतिके अजघन्य अनुभागबन्धके समान कहा है। समचतुरस्रसंस्थान आदि प्रकृतियाँ एक तो सप्रतिपक्ष हैं। दूसरे इनका मध्यम परिणामोंसे बन्ध होता है, इसलिए इनके जघन्य अनुभागबन्धूका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल चार समय कहा है । इनके अजघन्य अनुभागबन्धका जघन्य काल एक समय है,यह स्पष्ट ही है। तथा उत्तम भोगभूमिमें पर्याप्त जीवके इनका निरन्तर बन्ध होता है और ऐसा जीव इस पर्यायके अन्तमें वेदक सम्यक्त्वको प्राप्त कर छियासठ सागर काल तक उसके साथ रहा। तथा अन्तमें सम्यग्मिथ्यात्वको प्राप्त होकर पुनः वेदक सम्यक्त्वको प्राप्त कर छियासठ सागर काल तक उसके साथ रहा, उसके भी इनका निरन्तर बन्ध होता है, अतः इनके अजघन्य अनुभागबन्धका उत्कृष्ट काल कुछ कम तीन पल्य अधिक साधिक दो छियासठ सागर कहा है। औदारिकाङ्गोपाङ्ग भी सप्रतिपक्ष प्रकृति है और इसका जघन्य अनुभागबन्ध सर्व संक्लिष्ट परिणामोंसे होता है, अतः इसके जघन्य अनुभागबन्धका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल दो समय कहा है । तथा सप्रतिपक्ष प्रकृति होनेसे इसके अजघन्य अनुभागबन्धका जघन्य काल एक समय है,यह तो स्पष्ट ही है। साथ ही जो नारकी इसका तेतीस सागर काल तक निरन्तर बन्ध करता है और वहाँ से निकल कर अन्तमुहूर्त काल तक इसका और बन्ध करता है, इसकी अपेक्षा इसके अजघन्य अनुभागबन्धका उत्कृष्ट काल साधिक तेतीस सागर कहा है। तीर्थङ्कर प्रकृतिका जघन्य अनुभागबन्ध मिथ्यात्वके अभिमुख सम्यग्दृष्टि मनुष्यके अन्तिम समयमें होता है, इसलिए इसके जघन्य अनुभागका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय कहा है। तथा इसका उपशमश्रेणिकी अपेक्षा अन्तमुहर्त काल तक अजघन्य अनुभागबन्ध सम्भव है, क्योंकि जो जीव अन्तमुहूर्त काल तक इसका बन्ध कर उपशमश्रेणि पर आरोहण करता है, उसके अपूर्वकरणमें इसकी बन्धव्युच्छित्ति हो जाती है और इसका निरन्तर बन्ध मनुष्य और देवके साधिक तेतीस सागर काल तक होता रहता है, अतः इसके अजघन्य अनुभागवन्धका जघन्य काल अन्तमुहूर्त और उत्कृष्ट काल साधिक तेतीस सागर कहा है। ५१७. नारकियोंमें ध्रुवबन्धवाली प्रकृतियोंका भङ्ग उत्कृष्टके समान है। स्त्यानगृद्धि तीन, मिथ्यात्व, अनन्तानुबन्धी चार, तिर्यञ्चगति, तियञ्चगत्यानुपूर्वी और नीचगोत्रके जघन्य अनुभागबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है। अजघन्य अनुभागबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल तेतीस सागर है। इतनी विशेषता है कि मिथ्यात्वके अजघन्य अनुभागबन्ध का जघन्य काल अ सातादि प्रकृतियोंका भङ्ग श्रोचके समान है। स्त्रीवेद, नपुसकवेद, चार नोकपाय और उद्योतके जघन्य अनुभागबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल १. ता. प्रतौ तिरिक्ख० तिरिक्ख (?) तिरिक्वाणु० इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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