Book Title: Mahabandho Part 4
Author(s): Bhutbali, Fulchandra Jain Shastri
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 317
________________ २६२ महाबंधे अणुभागबंधाहियारे ५३३. कम्पइ० पंचणा०-णवदंसणा०-मिच्छत्त-सोलसक०-हस्स-रदि--भय-दु०तिरिक्खै०३-ओरालि० -- तेजा०-क० -- पसत्थापसत्थवण्ण४- अगु०४-आदाउज्जो०बादर-पज्जत्त-पत्ते-णिमि०-पंचंत० ज० एग० । अज० ज० एग०, उ० तिण्णिसम० । सादासाद०-एइंदि०-हुंड०-थावरादि४-थिराथिर--सुभासुभ-दूभ०--[दुस्सर-] अणादेंजस०-अजस० ज० अज० ज० एग०, उक्क० तिण्णिसम० । इत्थि०-मणुस०--तिण्णिजादि-पंचसंठा०-छस्संघ०-मणुसाणु०-दोविहा०-सुभग-सुस्सर आदें-उच्चा० ज० अज० ज० एग०, उ० बेसम० । पुरिस०-देवगदिपंचग-पंचिंदि०-ओरालि०अंगो०--तस० ज. अज० ज० एग०, उ. बेसम० । णस०-अरदि-सोग ज० ज० एग० उ० बेसम० । अज० ज० एगे०, उक्क० तिण्णिसम० । अथवा कम्म० सव्वपगदीणं ज० एग० । अज० ज० एग०, उक्क० तिण्णिसम० देवगदिपंचगं वज्ज। कारण आगे अन्तर प्ररूपणामें आहारकमिश्रकाययोगमें देवायुके अजघन्य अनुभागबन्धका अन्तर नहीं बतलाया है। शेष कथन सुगम है। ५३३. कार्मणकाययोगी जीवों में पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, हास्य, रति, भय, जुगुप्सा, तिर्यश्चगतित्रिक, औदारिकशरीर, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, प्रशस्त वर्णचतुष्क, अप्रशस्त वर्णचतुष्क, अगुरुलघुचतुष्क, आतप, उद्योत, बादर, पर्याप्त, प्रत्येक, निर्माण और पाँच अन्तरायके जघन्य अनुभागबन्धका अघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है। अजघन्य अनुभागबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल तीन समय है । सातावेदनीय, असातावेदनीय, एकेन्द्रियजाति, हुण्ड संस्थान, स्थावर आदि चार, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, दुर्भग, दु:स्वर, अनादेय, यश कीर्ति और अयशःकीर्तिके जघन्य और अजघन्य अनुभागबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल तीन समय है। स्त्रीवेद, मनुष्यगति, तीन जाति, पाँच संस्थान, छह संहनन, मनुष्यगत्यानुपूर्वी, दो विहायोगति,सुभग,सुस्वर, श्रादेय और उच्चगोत्रके जघन्य और अजघन्य अनुभागबन्ध का जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल दोसमय है। पुरुषवेद, देवगतिपञ्चक, पञ्चन्द्रिय जाति, औदारिक आङ्गोपाङ्ग और त्रसके जघन्य और अजघन्य अनुभागबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल दो समय है। नपुंसकवेद, अरति और शोकके जघन्य अनुभागबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल दो समय है। अजघन्य अनुभागबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल तीन समय है। अथवा कार्मणकाययोगी जीवोंमें सब प्रकृतियोंके जघन्य अनुभागबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है। तथा अजघन्य अनुभागबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल तीन समय है। मात्र देवगतिपञ्चकको छोड़कर यह काल जानना चाहिए। विशेषार्थ-प्रथम दण्डकमें कही गई पाँच ज्ञानावरणादि प्रकृतियोंका जघन्य अनुभागबन्ध अप्रशस्त प्रकृतियोंका सर्वविशुद्ध परिणामोंसे और प्रशस्त प्रकृतियोंका उत्कृष्ट संक्लेश परिणामों से होता है। किन्तु अपर्याप्त योग होनेसे यहाँ ऐसे परिणाम एक समय तक ही हो सकते हैं, इसलिए इन प्रकृतियोंके जघन्य अनुभागबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय कहा है । इनके अजघन्य अनुभागबन्धका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल तीन समय कहा है,यह स्पष्ट ही है । सातावेदनीय आदि दूसरे दण्डकमें कही गई प्रकृतियोंका जघन्य अनुभागबन्ध परि १. ता० प्रती हस्सरदिभ. तिरिक्ख०३ इति पाठः। २. ता० श्रा० प्रत्योः ज. अज० एग इति पाठः। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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