Book Title: Mahabandho Part 4
Author(s): Bhutbali, Fulchandra Jain Shastri
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 310
________________ कालपरूवणा ५२४. सव्वपुढ०--आउ०-वणप्फदि-पत्ते०--णियोद. जह० अपज्जत्तभंगो । अज० सव्वाणं अणुक्कस्सभंगो। एवं चेव तेउ०-वाउ० । गवरि धुविगाणं तिरिक्व०तिरिक्खाणु०-णीचा० ज० ज० एग०, उ० बेसम० । अज० अणुभंगो। ५२५. पंचमण-पंचवचि० पंचणा०--णवदंसणा--मिच्छ०-सोलसक० पंचणोक०-तिरिक्रवगदि०३-आहारदुग-अप्पसत्थ०४ उप०-तित्थय०-पंचंत० ज० एग० । अज० ज० एग०, उ० अंतो० । इत्थि०-णस०-अरदि-सोग-पंचिंदि०-ओरालि०वेउवि०--तेजा०-क०-दोअंगो०-पसत्थ०४-आदाउज्जो०-तस०४-णिमि० ज० ज० एग०, उ० बेसम० । अज० ज० एग०, उक० अंतो० । सेसाणं सादादीणं ज० ज० एग०, उक्क. चत्तारिसम० | अज० इत्थिभंगो । ५२४. सब पृथिवीकायिक, सब जलकायिक, सब वनस्पतिकायिक, प्रत्येक वनस्पतिकायिक और निगोद जीवोंमें सब प्रकृतियोंके जघन्य अनुभागबन्धका काल अपर्याप्तकोंके समान है और सब प्रकृतियोंके अजघन्य अनुभागबन्धका काल अनुत्कृष्टके समान है। इसी प्रकार अग्निकायिक और वायुकायिक जीवोंके जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि इनमें ध्रुवबन्धवाली प्रकृतियों, तिर्यश्चगति, तिर्यश्चगत्यानुपूर्वी और नीचगोत्रके जघन्य अनुभागवन्धका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल दो समय है । तथा अजघन्य अनुभागबन्धका काल अनुत्कृष्ट के समान है। विशेषार्थ--पृथिवीकायिक और बादर पृथिवीकायिक आदिजीवोंकी कायस्थिति अपर्याप्तकोंके समान न होकर अलग-अलग बतलाई है, इसलिए यहाँ अजघन्य अनुभागबन्धका काल अनुत्कृष्टके समान जानने की सूचना की है । इसी प्रकार अग्निकायिक और वायुकायिक जीवों में है। मात्र इनमें यश्चगतित्रिक ध्रुवबन्धिनी प्रकृतियाँ हैं, इसलिए इनमें इन तीन प्रकृतियोंकी ध्रवबन्धिनी प्रकृतियोंके साथ परिगणना करके कालका निर्देश किया है । शेष कथन स्पष्ट ही है। ५२५. पाँचों मनोयोगी और पाँचों वचनयोगी जीवोंमें पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, मिथ्यात्व, सोलह कपाय, पाँच नोकषाय, तिर्यश्चगतित्रिक, आहारकद्विक, अप्रशस्त वर्णचतुष्क, उपघात, तीर्थङ्कर और पाँच अन्तरायके जघन्य अनुभागवन्धका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है। तथा अजघन्य अनुभागवन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तमुहूर्त है। स्त्रीवेद, नपुंसक वेद, अरति, शोक, पञ्चोन्द्रिय जाति, औदारिकशरीर, वैक्रियिकशरीर, तेजसशरीर, कार्मणशरीर, दो प्राङ्गोपाङ्ग, प्रशस्त वर्णचतुष्क, आतप, उद्योत, त्रसचतुष्क और निर्माणके जघन्य अनुभागबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल दो समय है । अजघन्य अनुभागबन्ध का जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तमुहूर्त है। शेष साता आदि प्रकृतियों के जघन्य अनुभागबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल चार समय है । तथा अजघन्य अनुभागबन्धके कालका भङ्ग स्त्रीवेदके समान है। विशेषार्थ-पाँचों मनोयोगी और पाँचों वचनयोगी जीवोंमें सब प्रकृतियोंके जघन्य अनुभागबन्धका स्वामित्व ओघके समान है, इसलिये यहाँ प्रथम दंडकमें पाँच ज्ञानावरणादिक जितनी प्रकृतियाँ गिनाई हैं, उनका जघन्य अनुभागवन्ध स्वामित्वको देखते हुए एक समय तक ही हो सकता है। अतः इनके जघन्य अनुभागबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय कहा है । तथा इन योगोंका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट अन्तमुहूर्त होनेसे इन प्रकृतियोंके अजघन्य अनुभागबन्धका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तमुहर्त कहा है। दूसरे दण्डकमें जो प्रकृतियाँ कही गई हैं,उनके स्वामित्वको देखते हुए यहाँ उनका जघन्य अनुभागबन्ध एक और Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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