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सामित्त परूवणा
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देव० मिच्छा० तप्पा०संकि० | मणुसाउ० उक्क० कस्स० १ अण्ण० देव० असंजदसम्मादि ० तप्पा ०विसु० । देवाउ० ओघं । मणुसगदिपंचग० उक्क० कस्स ० १ अण्ण देव० सम्मादि० सव्ववि० ।
४३६, भवसि० ओघं । अब्भवसि० पंचणाणावरणादि० ओघं । सादा ०-पंचिंदि०तेजा०-क०-समचदु०-पसत्थवण्ण४- अगु०३ - पसत्थवि०-तस०४ - थिरादिछ० - [जस०] णिमि० उच्चा० कस्स० ? अण्ण० चदुगदिय० पंचिदि० सण्णि० सागा० सव्ववि० । चदुणो० चदुसंठा० चदुसंघ० उक्क० कस्स० १ अण्ण० चदुग० तप्पा० संकि० । आउ० मदि० भंगो | णिरयगदि - णिरयाणु ० तिरिक्ख मणुस ० सव्वसंकि० । तिरिक्ख ०-असंपत्तसे० - तिरिक्खाणु० देव० णेरइ० सव्वसंकि० । मणुसगदिपंचग० देव० णेरइ० सव्वविसु० उक्क० वट्ट० | देवगदि०४ उक्क० कस्स० ? अण्ण० तिरिक्ख० मणुस ० सागारः सव्वविसु० । सेसाणं ओघं ।
तत्प्रायोग्य संक्लेशयुक्त अन्यतर मिध्यादृष्टि आनतादिका देव उक्त प्रकृतियोंके उत्कृष्ट अनुभागबन्धका स्वामी है | मनुष्यायुके उत्कृष्ट अनुभागबन्धका स्वामी कौन है ? तत्प्रायोग्य विशुद्ध अन्यतर असंयत सम्यग्दृष्टि देव मनुष्यायुके उत्कृष्ट अनुभागबन्धका स्वामी है । देवायुका भङ्ग
के समान है । मनुष्यगतिपञ्चकके उत्कृष्ट अनुभागबन्धका स्वामी कौन है ? सर्वविशुद्ध अन्यतर सम्यग्दृष्टि देव उक्त प्रकृतियोंके उत्कृष्ट अनुभागबन्धका स्वामी है ।
विशेषार्थ -- यहाँ जिन क्षपक प्रकृतियोंका निर्देश किया है वे ये हैं-सातावेदनीय, देवगति, पञ्च ेन्द्रियजाति, वैक्रियिकशरीर, आहारकशरीर, तेजसशरीर, कार्मणशरीर, समचतुरस्त्रसंस्थान, वैक्रियिक आङ्गोपाङ्ग, आहारक आङ्गोपाङ्ग, प्रशस्त वर्णचतुष्क, देवगत्यानुपूर्वी, अगुरुलघु, परघात, उच्छ्वास, प्रशस्त विहायोगति, त्रस, बादर, पर्याप्त, प्रत्येक, स्थिर, शुभ, सुभग, सुस्वर, आदेय, यशः कीर्ति, निर्माण, तीर्थङ्कर और उच्चगोत्र |
४३६. भव्यों में ओषके समान भङ्ग है । अभव्यों में पाँच ज्ञानावरणादिका भङ्ग घ समान है । सातावेदनीय, पञ्चं न्द्रियजाति, तैजसशरीर, कार्मणशरीर समचतुरस्त्रसंस्थान, प्रशस्त वर्णचतुष्क, अगुरुलघुत्रिक, प्रशस्त विहायोगति, त्रसचतुष्क, स्थिरादि छह, यशःकीर्ति, निर्माण और उच्चगोत्र के उत्कृष्ट अनुभागबन्धका स्वामी कौन है ? साकार-जागृत और सर्वविशुद्ध अन्यतर चार गतिका पञ्चेन्द्रिय संज्ञी जीव उक्त प्रकृतियोंके उत्कृष्ट अनुभागबन्धका स्वामी है । चार नोकषाय, चार संस्थान और चार संहननके उत्कृष्ट अनुभागबन्धका स्वामी कौन है ? तत्प्रायोग्य संक्लेशयुक्त अन्यतर चार गतिका जीव उक्त प्रकृतियों के उत्कृष्ट अनुभागबन्धका स्वामी है। चारों आयुका भङ्ग मत्यज्ञानियों के समान है। नरकगति और नरकगत्यानुपूर्वीके उत्कृष्ट अनुभागबन्धका स्वामी कौन है ? सर्वसंक्लेशयुक्त अन्यतर तिर्यञ्च और मनुष्य उक्त प्रकृतियोंके उत्कृष्ट अनुभागबन्धका स्वामी है । तिर्यञ्चगति, सम्प्राप्ता पाटिका संहनन और तिर्यगत्यानुपूर्वीके उत्कृष्ट अनुभागबन्धका स्वामी कौन है ? सर्व संक्लेशयुक्त अन्यतर देव और नारकी उक्त प्रकृतियों के उत्कृष्ट अनुभागबन्धका स्वामी है । मनुष्यगतिपञ्चकके उत्कृष्ट अनुभागबन्धका स्वामी कौन है ? सर्वविशुद्ध और उत्कृष्ट अनुभागबन्ध करनेवाला अन्यतर देव और नारकी उक्त प्रकृतियोंके उत्कृष्ट अनुभागबन्धका स्वामी है । देवगतिचतुष्कके उत्कृष्ट अनुभागबन्धका स्वामी कौन है ? साकार-जागृत और सर्वविशुद्ध अन्यतर तिर्यश्च और मनुष्य उक्त प्रकृतियोंके उत्कृष्ट अनुभागबन्धका स्वामी है । २. ता० प्रतौ थिरादिछ० उच्चा० भा० प्रतौ थावरादिछु ०
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१. प्रा० प्रतौ प्रगु ४ इति पाठः । णिमि० उच्चा० इति पाठः ।
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