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कालपरूवणा तिण्णिपलि० देसू० । पंचिंदि०-ओरालि०अंगो०-पर०-उस्सा०-तस०४ उ० ज० एग०, उ० वेसम० । अणु० मदि०भंगो।
५०६. खइगसं० पंचणा०-छदसणा०-बारसक०-पुरिस०-भय-दु०-अप्पसत्थ०४उप०-पंचंत० उ० ज० एग०, उ० बेसम० । अणु० ज० एग०, उ० तेत्तीसं सा० सादि०। आहारदुग--थिर-सुभ--जस० ओघं । असादा०--चदुणोक०-दोआयु०--अथिर असुभअजस० उक्क० अणु० ओघं । मणुसगदिपंचग० उक्क० ओघं । अणु० ज० एग०, उ० तेत्तीसं० । देवगदि०४ उक० अणु० ओघं । पंचिंदि०-तेजा०-क०-[समचदु०-]पसत्थ०४अगु०३--पसत्यवि०-तस०४-सुभग-सुस्सर-आदे-णिमि०-तित्थय०-उच्चा० उक्क० एग०। अणु० ज. अंतो०, उक्क० तेत्तीसं० सादि ।
है। अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल कुछ कम तीन पल्य है। पञ्चन्द्रिय जाति, औदारिक आङ्गोपाङ्ग, परघात, उच्छ्वास और सचतुष्कके उत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल दो समय है। अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका काल मत्यज्ञानी जीवोंके समान है।
विशेषार्थ-अभव्यों में पाँच ज्ञानावरणादिका निरन्तर अनुत्कृष्ट बन्ध अनन्त काल तक सम्भव होनेसे यहाँ वह उक्त प्रमाण कहा है । सातावेदनीय आदि परावर्तमान प्रकृतियाँ होनेसे उनके अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका उत्कृष्ट काल अन्तमुहूर्त कहा है। तिर्यञ्चगतित्रिकके अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका उत्कृष्ट काल असंख्यात लोक प्रमाण ओघसे घटित करके बतला आये हैं। वह यहाँ अवि. कल बन जाता है, इसलिए वह ओघके समान कहा है। मत्यज्ञानियोंके मनुष्यगतिद्विकके उत्कृष्ट अनुभागबन्धका उत्कृष्ट काल साधिक इकतीस सागर बतला आये हैं, वह यहाँ इन दोनोंका बन जाता है, इसलिए वह मत्यज्ञानी जीवों के समान कहा है। उत्तम भोगभूमिमें पर्याप्त होनेपर देवगति
आदिका निरन्तर बन्ध होता है, इसलिए यहाँ इनके अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका उत्कृष्ट काल कुछ कम तीन पल्य कहा है। नरकमें व वहाँसे निकलने पर अन्तमुहूर्त काल तक पञ्चन्द्रियजाति आदिका निरन्तर बन्ध होता है, इसलिये यहाँ इनके अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका उत्कृष्ट काल मत्यज्ञानियों के समान साधिक तेतीस सागर कहा है । शेष कथन सुगम है।
५०६. क्षायिक सम्यग्दृष्टि जीवोंमें पाँच ज्ञानावरण, छह दर्शनावरण, बारह कपाय, पुरुषवेद, भय, जुगुप्सा, अप्रशस्त वर्णचतुष्क, उपघात और पाँच अन्तरायके उत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल दो समय है। अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल साधिक तेतीस सागर है, आहारकद्विक, स्थिर, शुभ और यशःकीर्तिके
और अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका काल ओघके समान है। असातावेदनीय, चार नोकषाय, दो आयु, अस्थिर, अशुभ और अयशःकीर्तिके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागवन्धका काल ओघके समान है । मनुष्यगतिपञ्चकके उत्कृष्ट अनुभागवन्धका काल अोधके समान है। अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल तेतीस सागर है। देवगतिचतुष्कके उत्कृष्ट
और अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका काल अोधके समान है। पञ्चोन्द्रिय जाति, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, समचतुरस्त्रसंस्थान, प्रशस्त वर्णचतुष्क, अगुरुलघुत्रिक, प्रशस्त विहायोगगति, त्रसचतुष्क, सुभग, सुस्वर, आदेय, निर्माण, तीर्थङ्कर और उच्चगोत्रके उत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है । अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका जयन्य काल अन्तमुहूर्त है और उत्कृष्ट काल साधिक तेतीस सागर है।
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