Book Title: Mahabandho Part 4
Author(s): Bhutbali, Fulchandra Jain Shastri
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 289
________________ महाबंधे श्रणुभागबंधाहिया रे ५०४, चक्खुदं० तसपज्जत्तभंगो। अचक्खु० ओघं । ५०५. किण्ण-नील- काउ० पंचणा ० णवदंसणा ० - मिच्छत्त- सोलसक००-भय०-दु०तिरिक्ख ०- पंचिंदि० ओरालि० -- तेजा ० क० - - ओरालि० अंगो०- पसत्थापसत्थ०४ - तिरिक्खाणु०-अगु०४-तस०४ - णिमि० णीचा ० - पंचंत० उ० ज० एग०, उक्क० बेसम० । अणु० ज० एग०, उक्क० तैंतीस सत्तारस सत्त साग० सादि० । सादासाद ० छण्णोक०चदुआयु० - वेडव्वियछ० चदुजादि - पंचसंठा० - पंचसंघ० - अप्पसत्थ० - आदाव-थावरादि४थिरादितिष्णियुगल ०-दूभग- दुस्सर-अणादे० उ० ज० एग०, उ० बेसम० । अणु० ज० उ० अंतो० । पुरिस० मणुस ० - समचदु० - वज्जरि०- मणुसाणु० -पसत्थवि ०-सुभग २६४ एग०, समान कहा है। असंयत जीवों में प्रायः अधिकतर प्रकृतियोंके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका काल ओघ के समान बन जाता है। जिसमें कुछ विशेषता है, उनका यहाँ स्पष्टीकरण करते हैं- पुरुषवेदका निरन्तर बन्ध सर्वार्थसिद्धि में और उसके बाद मनुष्य पर्यायमें सम्भव है । इसी प्रकार श्रदारिक आङ्गोपाङ्गका निरन्तर बन्ध भी वहाँ सम्भव है, पर यहाँ नरककी अपेक्षा लेना चाहिए; कारण कि नरक से निकलनेके बाद भी अन्तर्मुहूर्त काल तक औदारिक आङ्गोपाङ्गका बन्ध होता रहता है, इसलिए असंयतों में इन दोनों प्रकृतियों के अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका उत्कृष्ट काल साधिक तेतीस सागर कहा है । असंयतों में पश्चन्द्रिय जाति आदि प्रकृतियोंका उत्कृष्ट अनुभागबन्ध संयमके अभिमुख होने पर असंयत सम्यग्दृष्टि के अन्तिम समय में होता है, इसलिए इनके उत्कृष्ट अनुभागबन्धका जन्य और उत्कृष्ट काल एक समय कहा है। तथा इनका निरन्तर बन्ध सर्वार्थसिद्धि में और वहाँ से च्युत होनेपर भी होता रहता है, इसलिए इनके अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका उत्कृष्ट काल साधिक तेतीस सागर कहा है। शेष कथन सुगम है । सपर्याप्त जीवों के समान भङ्ग है । अचतुदर्शनवाले जीवों में ५०४. चतुदर्शनवाले जीवोंमें ओके समान भङ्ग है । विशेषार्थ - सपर्याप्त जीवों में पञ्चन्द्रियों की मुख्यता है और इनके चतुदर्शन नियमसे होता है, इसलिए सपर्याप्तकों के पहले जो प्ररूपणा कर आये हैं, वह चतुदर्शनवाले जीवों में विकल बन जाती है। तथा चतुदर्शन बारहवें गुणस्थान तक होता है, इसलिए ओघप्ररूपणा अचक्षुदर्शनवाले जीवों में अविकल बन जाती है, यह उक्त कथनका तात्पर्य है । ५०५. कृष्ण, नील और कापोतलेश्यावाले जीवों में पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, मिथ्यात्व, सोलह कशय, भय, जुगुप्सा, तिर्यञ्चगति, पञ्च ेन्द्रियजाति, औदारिक शरीर, तैजसशरीर, कार्मरण शरीर, औदारिक आङ्गोपाङ्ग, प्रशस्त वर्णचतुष्क, अप्रशस्त वर्णचतुष्क, तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वी, अगुरुलघुचतुष्क, त्रसचतुष्क, निर्माण, नीचगोत्र और पाँच अन्तरायके उत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल दो समय है । अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल क्रमसे साधिक तेतीस सागर, साधिक सत्रह सागर और साधिक सात सागर है । सातावेदनीय, असातावेदनीय, छह नोकषाय, चार आयु, वैक्रियिकषट्क, चार जाति, पाँच संस्थान, पाँच संहनन, अप्रशस्त विहायोगति, तप, स्थावर आदि चार, स्थिर आदि तीन युगल, दुर्भग, दुःस्वर और अनादेयके उत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल दो समय है । अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है । पुरुषवेद, मनुष्यगति, समचतुरस्र संस्थान, वज्रर्षेभनाराच संहनन, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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