________________
कालपरूवणा
२४७ ४८३. एइंदिएसु धुविगाणं तिरिक्खगदितिगस्स च उ० ज० ए०, उ० बेसम। अणु० ज० ए०, उ० असंखेज्जा लोगा। बादरे अंगुल० असंखें, तिरिक्खगदितिगस्स कम्महिदी। बादरपज्जत्ते संखेजाणि वाससहस्साणि। सुहुमे असंखेंजा लोगा । सेसाणं अपज्जत्तमंगो।।
- ४८४. पंचिं०-तस०२ पंचणा०-णवदंसणा०-मिच्छत्त--सोलसक०--भय-दु०अप्पसत्थवण्ण०४-उप०-पंचंत० उक्क० ओघं । अणुक्क० ज० एग०, उक्क० कायहिदी। गति, मनुष्यगत्यानुपूर्वी और उच्चगोत्र परावर्तमान प्रकृतियाँ हो जाती हैं। इसी प्रकार दूसरे कल्प तक एकेन्द्रिय जाति और स्थावरका भी बन्ध होता है इसलिए वहां तक पञ्चन्द्रिय जाति और त्रस ये दो प्रकृतियाँ भी परावर्तमान हो जाती हैं पर सौधर्मादि कल्पोंमें सम्यग्दृष्टि भी उत्पन्न होते हैं और सम्यग्दृष्टियोंके इनका बन्ध नहीं होता, इसलिए सौधर्मादि कल्पोंमें यथासम्भव सम्यग्दृष्टिकी अपेक्षा मनुष्यगति, पञ्चन्द्रियजाति, मनुष्यगत्यानुपूर्वी, त्रस और उच्चगोत्र ये ध्रुबबन्धिनी ही हैं और इस अपेक्षासे इन कल्पोंमें इन प्रकृतियों के अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका उत्कृष्ट काल अपने अपने कल्पकी उत्कृष्ट स्थिति प्रमाण मिल जाता है, अतः वह उक्त प्रमाण कहा है। मात्र भवनत्रिको सम्यग्दृष्टि मरकर उत्पन्न नहीं होते अतः यहां जिनकी जो उत्कृष्ट स्थिति हो उसमेंसे कुछ कम करके इन प्रकृतियों के अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका उत्कृष्ट काल कहना चाहिए। शेष कथन सुगम है।
४८३. एकेन्द्रियों में ध्रुवबन्धवाली और तिर्यञ्चगति त्रिकके उत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल दो समय है। अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल असंख्यात लोक प्रमाण है। बादर जीवोंमें अंगुलके असंख्यातवें भाग प्रमाण है । किन्तु तिर्यञ्चगतित्रिकका कर्मस्थितिप्रमाण है। बादर पर्याप्तकोंमें संख्यात हजार वर्ष है। सूक्ष्म जीवोंमें असंख्यात लोक प्रमाण है। शेष प्रकृतियोंका भङ्ग अपर्याप्त जीवोंके समान है।
विशेषार्थ-यद्यपि एकेन्द्रियोंकी कायस्थिति अनन्तकाल प्रमाण अर्थात् असंख्यात पुद्गल परिवर्तन प्रमाण कही है; तथापि यह कायस्थिति एकेन्द्रियोंमें बादरसे सूक्ष्म और सूक्ष्मसे बादर तथा पर्याप्त और अपर्याप्त होते हुए प्राप्त होती है और असंख्यात लोक प्रमाण काल तक सूक्ष्म रहनेके बाद ऐसे जीवके बादर होने पर पर्याप्त अवस्थामें इन प्रकृतियोंका उत्कृष्ट बन्ध भी होने लगता है। यदि यह मानकर भी चला जाय कि ऐसे जीवके पर्याप्त अवस्थामें उत्कृष्ट अनुभागबन्ध पर्याप्तकी कायस्थितिके अन्तमें करावेंगे तो भी बादर पर्याप्त जीवकी कुल कायस्थिति संख्यात हजार वर्ष प्रमाण ही है। यदि सामान्यसे बादर जीवकी कायस्थिति ली जाती है, तो वह अंगल के असंख्यातवें भागप्रमाण ही होती है । पर इससे सूक्ष्म जीवोंकी कायस्थिति में विशेष अन्तर नहीं पाता। अतः यहाँक एकेन्द्रियों में उक्त प्रकृतियों के अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका उत्कृष्ट काल असंख्यात लोक प्रमाण कहा है । शेष बादरादिककी जो कायस्थिति है, उसे ध्यानमें रख कर अनुत्कृष्ट अनुभागबन्ध का वहाँ उत्कृष्ट काल कहा है । मात्र तिर्यञ्चगतित्रिकके अनुस्कृष्ट अनुभागबन्धका उत्कृष्ट काल बादरोंमें कर्म स्थिति प्रमाण कहा है। सो इसका कारण यह है कि अग्निकायिक और वायुकायिक जीवोंमें ही इन प्रकृतियोंका निरन्तर बन्ध होता है और बादर अग्निकायिक और वायुकायिक जीवोंकी कायस्थिति कर्मस्थितिप्रमाण है, अतः इन तीन प्रकृतियोंके अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका उत्कृष्ट काल कर्म स्थिति प्रमाण कहा है। अब रहीं शेष प्रकृतियाँ सो वे सब परावर्तमान हैं, अतः उनके अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका उत्कृष्ट काल अन्तमुहूर्त कहा है । शेष कथन सुगम है।
४८४. पञ्चन्द्रियद्विक और त्रसद्विक जीवोंमें पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, भय, जुगुप्सा, अप्रशस्त वर्णचतुष्क, उपघात और पाँच अन्तरायके उत्कृष्ट अनुभाग
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org