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महाबंधे अणुभागबंधाहियारे २-७ सव्व-णोसव्वबंधो उक्कस्सादिबंधो य ४०३. यो सो सव्यबंधो० णाम उक्क ० अणुक० जह० अज० मूलपगदिभंगो कादव्यो।
८-११ सादि-अणादि-धुव-अधुवबंधो ४०४. यो सो सादि०४ तस्स इमो णिद्देसो-पंचणाणा० णवदंसणा०-मिच्छ.. सोलसक०-भय-दुगुं० अप्पसत्थवण्ण०४-उवघाद०-पंचंत० उक्क० अणुक्क० जहण्ण. किं सादि०४१ सादिय-अधुवबंधो । अज० किं सादि० ४ ? सादियबंधो वा० ४ । तेजा०-क०-पसत्थ०वण्ण०४-अगु० णिमि० अणु० चत्तारिभंगो। सेसं तिण्णिपदा सेसाणं च कम्माणं चत्तारिपदा किं सादि० ४ ? सादिय-अधुवबंधो' ।
२-७ सर्व नोसर्वबन्ध तथा उत्कृष्ट-अनुत्कृष्ट-जघन्य-अजघन्यवन्ध ४०३. जो सर्वबन्ध और नोसर्ववन्ध है तथा उत्कृष्ट अनुत्कृष्ट, जघन्य और अजघन्य बन्ध है,उसका भङ्ग मूल प्रकृतिबन्ध के समान जानना चाहिये।
८.११ सादि-अनादि-ध्रुव-अध्रवबन्ध ४०४ जो सादि, अनादि, ध्रुव और अध्रुव बन्ध है,उसका यह निर्देश है। उसकी अपेक्षा पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, मिथ्यात्व, सोलह कपाय, भय, जुगुप्सा, अप्रशस्त वर्णचतुष्क, उपघात और पाँच अन्तरायका उत्कृष्ट, अनुस्कृष्ट और जघन्य अनुभागबन्ध क्या सादि है, अनादि है, ध्रव है या अध्रव है? सादि और अध्रवबन्ध है। अजघन्य अनुभागबन्ध क्या सा अनादि है, क्या ध्रुव है या क्या अध्रुव है ? सादि है, अनादि है, ध्रुव है और अध्रव है । तैजसशरीर, कार्मणशरीर, प्रशस्त वर्णचतुष्क, अगुरुलघु और निर्माण के अनुत्कृष्ट अनुभागवन्धके चार भङ्ग हैं। इनके शेष तीन पद तथा शेष कर्मों के चारों पद क्या सादि हैं, अनादि है, ध्रव हैं या अध्रव है ? सादि और अध्रुव हैं।
विशेषार्थ-पाँच ज्ञानावरण, चार दर्शनावरण और पाँच अन्तराय इन चौदह प्रकृतियोंका क्षपक सूक्ष्मसाम्परायके अन्तिम समयमें, चार संज्वलनोंका अनिवृत्तिबादरक्षपकके अपनी-अपनी बन्धव्युच्छित्तिके अन्तिम समयमें, निद्रा, प्रचला, भय, जुगुप्सा, अप्रशस्त वर्णचतुष्क और उपघातका क्षपक अपूर्वकरणके अपनी बन्धव्युच्छित्तिके अन्तिम समयमें, चार प्रत्याख्यानावरणका संयमको प्राप्त होनेवाले देशसंयतके अतिन्म समयमें चार अप्रत्याख्यानावरणका क्षायिक सम्यक्त्व
और संयमको एक साथ प्राप्त होनेवाले अविरतसम्यग्दृष्टिके अन्तिम समयमें, स्त्यानगृद्धि तीन, मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धी चारका सम्यक्त्व और संयमासंयमको एक साथ प्राप्त होनेवाले मिध्यादृष्टिके अन्तिम समयमें जघन्य अनुभागबन्ध होता है; यतः वह सादि और अध्रुव है, इसलिए इनका जघन्य अनुभागबन्ध सादि और अध्रुव कहा है। तथा इनके जघन्य अनुभागबन्धके प्राप्त होनेके पहले इन सब प्रकृतियोंका अजघन्य अनुभागबन्ध होता है जो अपनी- अपनी व्युच्छित्तिके पूर्व तक अनादि है और यथायोग्य स्थानमें व्युच्छित्ति होने के बाद लौटकर पुनः पन्ध होनेपर सादि है । तथा ध्रुव और अध्रुव क्रमसे भव्य और अभव्यकी अपेक्षा होते हैं, इस. लिए इनका अजघन्य अनुभागबन्ध सादि आदिके भेदसे चार प्रकारका कहा है । तथा इनका उत्कृष्ट अनुभागबन्ध चार रातिका पयाप्त संज्ञी पञ्चेन्द्रिय मिथ्या दृष्टि जीव उत्कृष्ट संक
, ता. प्रतौ -बंधो ३ (?) इति पाठः ।
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