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सण्णापरूवणा
१८३ ४०२. ढाणसण्णा च णाणावर०[४]-दंसणावर०३-चदुसंज०-पुरिस०-पंचंत. उकस्सअणुभाग० चदुट्टाणियो। अणुक्क० चदुट्टाणियो वा तिढाणियो वा विट्ठाणियो वा एयट्ठाणियो वा । जह• अणुभा० एयद्याणियो । अज० एयट्ठाणि० वा विट्ठा० वा तिट्ठा० वा चदुट्ठा० वा । केवलणा०-छदंसणा०-सादासाद०-मिच्छत्त०-बारसक० अट्ठणोक०-चदुआयु० सवाओ णाम०पगदीओ णीचुचागो० उक्क० णुभा० चदुट्ठा० । अणुक्क० अणुभा० चदुट्ठा० तिट्ठा० विट्ठा० वा। जह० अणुमा० विट्ठा० । अजह. विट्ठाणगो० तिट्ठा० चदुट्ठा० ।
घाति अनुभागबन्धके दो भेद हैं-देशघाति और सर्वघाति । देशघाति अनुभागबन्ध जीवके अनुजीवी गुणोंका एकदेश घात करता है । इसके उदयकाल में जीवका अनुजीवी गुण प्रगट तो रहता है,परन्तु वह समल रहता है। उदाहरणार्थ-मतिज्ञान मतिज्ञानावरणकर्मके देशवाति स्पर्धकोंके उदयसे और सर्वघाति स्पर्धकोंके अनुदयसे होता है। यहाँ मतिज्ञानका जो अंश प्रकाशमान है, वह मतिज्ञानावरणकर्मके सर्वघातिस्पर्धकोंके अनुदयका कार्य है । और जितने अंशमें उसमें सदोषता है,वह मतिज्ञानावरणकर्मके देशघातिस्पर्धकोंके उदयका कार्य है । इससे स्पष्ट है कि सर्वघातिस्पर्धक जीवके अनुजीवी गुणका सामस्त्येन घात करता है और देशघाति स्पर्धक एकदेश घात करता है। यहाँपर मतिज्ञानावरणादि चार ज्ञानावरण, चक्षुःदर्शनावरण आदिक तीन दर्शनावरण, चार संज्वलन, नौ नोषकाय और पाँच अन्तराय इनमें दोनों प्रकार के स्पर्धकोंका सद्भाव बतलाया है। तथा शेष घातिकर्मों में केवल सर्वघाति स्पर्धकोंका सद्भाव बतलाया है । अघातिकर्मोंका स्पर्धक जीवके अनु. जीवी गुणों का सर्वथा घात करने में असमर्थ होता है, इसलिए अघाति कहा है। इसका अर्थ यह नहीं कि वह जीवके किसी भी गुणका घात नहीं करता । घात तो वह भी करता है, परन्तु अनुजीवी गुणोंका घात नहीं करता, इतना अभिप्राय उक्त कथनका जानना चाहिये।
४०२. स्थानसंज्ञाकी अपेक्षा चार ज्ञानावरण, तीन दर्शनावरण, चार संज्वलन, पुरुषवेद और पाँच अन्तरायका उत्कृष्ट अनुभागवन्ध चतुःस्थानिक होता है। अनुकृष्ट अनुभागबन्ध चतुःस्थानिक होता है, त्रिस्थानिक होता है, द्विस्थानिक होता है और एकस्थानिक होता है। जघन्य अनुभागबन्ध एकस्थानिक होता है । तथा अजघन्य अनुभागबन्ध एकस्थानिक होता है, द्विस्थानिक होता है, त्रिस्थानिक होता है, और चतुःस्थानिक होता है । केवलज्ञानावरण, छह दर्शनावरण, साता. वेदनीय, असातावेदनीय, मिथ्यात्व, बारह कपाय, आठ नोकषाय, चार आयु, सब नामकमकी प्रकृतियाँ, नीचगोत्र और उच्चगोत्रका उत्कृष्ट अनुभागबन्ध चतुःस्थानिक होता है। अनुत्कृष्ट अनुभागबन्ध चतुःस्थानिक होता है, त्रिस्थानिक हाता है अथवा विस्थानिक होता है। जघन्य अ बन्ध विस्थानिक होता है । अजघन्य अनुभागवन्ध द्विस्थानिक होता है, त्रिस्थानिक होता है और चतुःस्थानिक होता है।
विशेषार्थ-श्रेणी के नौवें गुणस्थानके अन्तिम भागसे एक स्थानिक अनुभागबन्ध सम्भव है। यही कारण है कि चार ज्ञानावरण, तीन दर्शनावरण, चार संज्वलन, पुरुषवेद और पाँच अन्तरायका जघन्य, अजघन्य और अनुत्कृष्ट अनुभागबन्ध एकस्थानिक भी कहा है। इनके सिवा अन्य कर्मोंका एकस्थानिक अनुभागवन्ध सम्भव नहीं है। इसलिए उनका अनुभागबन्ध एकस्थानिक नहीं कहा है। यद्यपि केवलज्ञानावरण और केवल दर्शनावरणका भी दसवें गुणस्थान तक बन्ध होता है, पर सर्वघाति होनेसे उनका एकस्थानिक अनुभागवन्ध नहीं होता।
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