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महाबंधे अणुभागवंधाहियारे सत्तणं क० उक्क० जह० एग०, उक्क० आवलि. असंखें । अणु जह• एग०, उक. पलिदो० असंखेज । आउ० णिरयोघं । सम्मामि० सत्तणं क. उपसमघादीणं भंगो।
__ एवं उक्कस्सकालं समत्तं'।। २५०. जहण्णए पगदं । दुवि०-ओघे० आदे। ओषे० धादि०४ जह० जह. एग०, उक० संखेंजः । अज० सम्बद्धा । वेद०-आउ०-णाम० जह० अज० सव्वद्धा । गोद० जह. जह० एग०२, उक्क० आवलि. असं० । अज० सन्वद्धा। एवं ओघमंगो कायजोगि-णस०-कोधादि०४-मदि०-सुद०-असंज०-अचक्खु०-भवसि०-मिच्छा०आहारग ति। अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट काल पल्यके असंख्यातवें भाग प्रमाण है। सासादनसम्यग्दृष्टि जीवोंमें सात कर्मों के उत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल श्रावलि के असंख्यातवें भाग प्रमाण है। अनुत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल पल्यके असंख्यातवें भाग प्रमाण है। आयुकर्मका भंग सामान्य नारकियोंके समान है। सम्यग्मिध्यादृष्टि जीवोंमें सात कोका भंग उपशमसम्यग्दृष्टि जीवोंके चार घातिकों के समान है।
इस प्रकार उत्कृष्ट काल समाप्त हुआ। २५०. जघन्यका प्रकरण है। उसकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-मोघ और आदेश । ओघसे चार घातिकर्मोके जघन्य अनुभागके बन्धक जीवोंका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल संख्यात समय है। अजघन्य अनुभागके बन्धक जीवोंका काल सर्वदा है। वेदनीय, आयु
और नाम कर्मके जघन्य और अजघन्य अनुभागके बन्धक जीवोंका काल सर्वदा है। गोत्रकर्मके जघन्य अनुभागके बन्धक जीवोंका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल आवलीके असंख्यातवें भाग प्रमाण है। अजघन्य अनुभागके बन्धक जीवोंका काल सर्वदा है । इस प्रकार पोषके समान काययोगी, नपुंसकवेदी, क्रोधादि चार कषायवाले, मत्यज्ञानी, श्रुताज्ञानी, असंयत, अचक्षुदर्शनी, भव्य, मिथ्यादृष्टि और आहारक जीवोंके जानना चाहिये।
विशेषार्थ-चार घातिकमौका जघन्य अनुभागबन्ध क्षपकौणिमें अपनी-अपनी बन्धव्युच्छित्तिके अन्तिम समयमें होता है । यह हो सकता है कि यह बन्ध एक समय तक ही हो और क्रमसे यदि एकके बाद दूसरा जीव यह जघन्य बन्ध करे, तो संख्यात समय तक भी यह बन्ध हो सकता है, इसलिए यहाँ इन कर्माके जघन्य अनुभागबन्धका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल संख्यात समय कहा है। अजघन्य अनुभागबन्ध सवंदा होता है, यह स्पष्ट ही है। वेदनीय, आयु और नामकर्मके जघन्य अनुभागबन्धके स्वामित्वको देखनेसे विदित होता है कि इनका जघन्य और अजघन्य अनुभागबन्ध नाना जीवोंकी अपेक्षा सर्वदा सम्भव है, इसलिए इन तीन कर्मो के जघन्य और अजघन्य अनुभागबन्धका काल सर्वदा कहा है। गोत्रकर्मका जघन्य अनुभागबन्ध सम्यक्त्वके अभिमुख सातवें नरकके नारकीके होता है। यदि एक या नाना जीव एक साथ सम्यक्त्वके अभिमुख हुए, तो एक समयके लिए जघन्य अनुभागबन्ध होगा और क्रमसे अनेक जीव निरन्तर सम्यक्त्वके भभिमुख हुए तो आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण काल तक जघन्य अनुभागबन्ध होगा। यही कारण है कि यहाँ गोत्रकर्मके जघन्य अनुभागबन्धका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल श्रावलिके असंख्यातवें भागप्रमाण कहा है। अजघन्य अनुभागवन्धका
1ता० प्रती एवं उक्कस्सकालं समत्तं इति पाठो नास्ति । २. ता० प्रती गोद० मह० एग• इति पाठः ।
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