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फोसणपरूवणा
६३ २१०. तिरिक्खेसु सत्तण्णं क० उक्क० छच्चों, अणु० सबलो० । आउ० खेत्तः । पंचिंदि तिरिक्ख३ सत्तण्णं क० उक्क० छच्चों, अणु० लो० असंखें. वा सव्वलोगो वा । आउ० खेत्त०। पंचिंदि०तिरिक्खअपज० घादि०४ उक० अणु० लोग० असं० सबलोगो वा । वेद०णामा-गोदा० उक्क० खेतभंगो.। अणु० लो० असंखें भागो वा सव्वलोगो वा । आउ० खेत्त । एवं मणुसअपञ्ज०-सबविगलिंदि०-पंचिंदि०-तस० अपज० बादरपुढ०-आउ० ते उ०-यादरवणप्फदिपत्ते०पजत्ताणं च । बादरवाउ०पज्जत्ता. तं चेव । णवरि जम्हि लो० असं० तम्हि लो० संखें।
२१०. तिथंचों में सात कर्मों के उत्कृष्ट अनुभागवन्धका स्पर्शन कुछ कम छह बटे चौदह राजू है। अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका स्पर्शन सब लोक है। आयुकर्मका भंग क्षेत्रके समान है । पंचेन्द्रिय तिर्यंच त्रिकमें सात कर्मों के उत्कृष्ट अनुभागबन्धका स्पर्शन कुछ कम छह बटे चौदह राजू है ,अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धका स्पर्शन लोकके असख्यातवें भाग प्रमाण और सच लोक है। भायु कर्मका भंग क्षेत्रके समान है। पंचेन्द्रिय तिथंच अपर्याप्तकोंमें चार घाति कर्मों के उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंने लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण और सब लोक क्षेत्रका स्पर्शन किया है। वेदनीय, नाम और गोत्र कर्मके उत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान है। अनुत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंने लोकके असंख्यातवें भाग प्रमाण और सब लोक क्षेत्रका स्पर्शन किया है।
आयुकर्मका भङ्ग क्षेत्रके समान है । इसी प्रकार मनुष्य अपर्याप्त, सब विकलेन्द्रिय, पञ्चेन्द्रिय अपर्याप्त, त्रस अपर्याप्त,बादर पृथिवीकायिक पर्याप्त, वादर जलकायिक पर्याप्त, बादर अग्निकायिक पर्याप्त
और बादर वनस्पतिकायिक प्रत्येक शरीर पर्याप्त जीवोंके जानना चाहिये। बादर वायुकायिकपर्याप्त जीवोंके इसी प्रकार जानना चाहिये। इतनी विशेषता है कि जहाँ लोकका असख्यात स्पर्शन कहा है, वहाँ लोकका संख्यातवाँ भाग प्रमाण स्पर्शन कहना चाहिये।
विशेषार्थ-तिर्यश्चोंमें चार घाति कर्मोकी अपेक्षा नीचे सातवीं पृथिवी तक और वेदनीय, नाम व गोत्र कर्मकी अपेक्षा ऊपर अच्युत कल्प तक उत्कृष्ट अनुभागबन्धका स्पर्शन सम्भव है, इसलिए इनमें सात कर्मों के उत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करनेवाले जीवोंका स्पर्शन कुछ कम छह बटे चौदह राजू कहा है । इन कर्मोकी अपेक्षा यही बात पञ्चेन्द्रिय तिर्यश्चत्रिकमें जाननी चाहिए, क्योंकि सामान्य तियश्चोंमें इन कर्माका उत्कृष्ट अनुभागवन्ध पश्चेन्द्रिय तियेचत्रिककी अपेक्षा ही कहा है। पश्चेन्द्रिय तियश्चोंका वर्तमान स्पर्शन लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण है और अतीत कालीन स्पर्शन मारणान्तिक समुद्धात व उपपाद पदकी अपेक्षा सब लोक है।इसलिए इनमें सात कर्मों के अनुत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंका स्पर्शन उक्त प्रमाण कहा है। पञ्चेन्द्रिय तिर्यंच लध्यपर्याप्तकोंका वर्तमान कालीन स्पर्शन लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण है और अतीत कालीन स्पर्शन अपेक्षा विशेषसे सर्वलोक है। यतः इनमें मारणान्तिक समुद्घातके समय भी चार घातिकर्मोंका उत्कृष्ट अनुभागबन्ध सम्भव है,अतः इनमें चार घातिकर्मों के उत्कृष्ट और सात कर्मों के अनुत्कृष्ट अनुभागबन्धकी अपेक्षा उक्त प्रमाण स्पर्शन कहा है। परन्तु वेदनीय, नाम और गोत्रकर्मका उत्कृष्ट अनुभागबन्ध मारणान्तिक समुद्घात और उपपाद पदके समय सम्भव नहीं है,अतः इनके उत्कृष्ट अनुभागबन्धकी अपेक्षा स्पर्शन क्षेत्रके समान कहा है। आयुकर्मका विचार इन सब मार्गणाओं में क्षेत्रके समान ही है। कारण कि मारणान्तिक समुद्घात व उपपाद पदके समय आयुकर्मका बन्ध नहीं होता। मूलमें मनुष्य लब्ध्यपर्याप्तक आदि अन्य जितनी मार्गणाएँ गिनाई हैं, उनमें पञ्चेन्द्रिय तिर्यच लब्ध्यपर्याप्तकों के समान ही स्पर्शन उपलब्ध होता है, इसलिए उनके कथनको पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च लध्यपर्याप्तकोंके समान कहा है । मात्र वायुकायिक पर्याप्तकोंमें जो विशेषता है वह मूल में कही ही है।
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