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महाबंधे अणुभागबंधाहियारे अज० लो० असं० सव्वलो० । आउ० खेत । एवं वाउ० । णवरि जम्हि लो० असं० तम्हि लो० संखेज।
२३२. ओरालि०-ओरालियमि० ओघं । णवरि गोद० तिरिक्खोघं । वेउवि०' घादि०४ जह• अट्टचों'। अज० अट्ठ-तेरह । गोद० जह० खेत्त० । अज० अट्ठतेरह । वेद०-णाम० जह० अज० अट्ठ-तेरह । आउ० जह० अज० अढचों । वेउब्वियमि०-आहार-आहारमि०-अवगदवे०-मणपज०-संजद-सामाइ०-छेदो०-परिहार०. सुहुमसंपराइग त्ति खेत्तभंगो। प्रमाण और सब लोक क्षेत्रका स्पर्शन किया है। आयुकर्मका भङ्ग क्षेत्रके समान है। इसी प्रकार वायुकायिक जीवोंके जानना चाहिये। इतनी विशेषता है कि जहाँ पर लोकका असंख्यातवाँ भाग प्रमाण क्षेत्र कहा है,वहाँ पर लोकका संख्यातवाँ भाग प्रमाण क्षेत्र कहना चाहिये।
२३२. औदारिककाययोगी और औदारिकमिश्रकाययोगी जीवों में ओघके समान स्पर्शन है। इतनी विशेषता है कि गोत्र कर्मका भङ सामान्य तिर्योंके समान है। वैक्रियिकका जीवोंमें चार घातिकर्मोके जघन्य अनुभागके बन्धक जीवोंने कुछ कम पाठ बटे चौदह राजु क्षेत्रका स्पर्शन किया है। अजघन्य अनुभागके बन्धक जीवोंने कुछ कम आठ बटे चौदह राजू और कुछ कम तेरह बटे चौदह राजु क्षेत्रका स्पर्शन किया है। गोत्रकर्मके ' जघन्य अनुभागके बन्धक जीवोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान है। अजघन्य अनुभागके बन्धक जीवोंने कुछ कम आठ बटे चौदह राजू और कुछ कम तेरह बटे चौदह राज क्षेत्रका स्पर्शन किया है। वेदनीय और नामकर्मके जघन्य और अजघन्य अनुभागके बन्धक जीवोंने कुछ कम आठ बटे चौदह राजू और कुछ कम तेरह बटे चौदह राजू क्षेत्रका स्पर्शन किया है। आयुकर्मके जघन्य और अजघन्य अनु. भागके बन्धक जीवोंने कुछ कम आठ बटे चौदह राजु क्षेत्रका स्पर्शन किया है। वैक्रियिकमिश्रकाययोगी, आहारककाययोगी, आहारकमिश्रकाययोगी, अपगतवेदी, मनःपर्ययज्ञानी, संयत, सामायिक संयत, छेदोपस्थापनासंयत, परिहारविशुद्धिसंयत और सूक्ष्मसाम्परायिकसंयत जीवोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान है।
विशेषार्थ---औदारिककाययोगमें सात कर्मों का स्वामित्व ओघके समान होनेसे स्पर्शन भी ओघके समान बन जाता है। मात्र गोत्रकर्मके स्वामित्वमें ओघसे कुछ विशेषता है जिसका उल्लेख मूलमें किया ही है। औदारिकमिश्रकाययोगमें यद्यपि चार घाति कर्मों के जघन्य अनुभागबन्धके स्वामित्वमें कुछ विशेषता है, पर उससे ओघस्पर्शनमें अन्तर नहीं आता। इसलिए यहाँ भी आठों कर्मों के जघन्य और अजघन्य अनुभागके बन्धक जीवोंका स्पर्शन उसी प्रकार कहा है। वैक्रियिककाययोगमें सम्यग्दृष्टि सर्वविशुद्ध देव और नारकी चार घातिकर्माका जघन्य अनुभागबन्ध करता है और वैक्रियिककाययोगी असंयतसम्यग्दृष्टि जीवोंका स्पर्शन कुछ कम आठ बटे चौदह राजू है, अतः यह स्पर्शन उक्त प्रमाण कहा। इनके तथा अन्य तीन कर्मों के अजघन्य अनुभागके बन्धक जीवोंक। स्पर्शन कुछ कम आठ बटे चौदह राजू और कुछ कम तेरह बटे चौदह राजू है ,यह स्पष्ट ही है। गोत्रकर्मका जघन्य अनुभागबन्ध सम्यक्त्वके अभिमुख सातवीं पृथिवीका सर्वविशुद्ध नारकी करता है। यतः ऐसे जीवोंका स्पर्शन लोकके असंख्यातवें भाग प्रमाण प्राप्त होता है और इनका क्षेत्र भी इतना ही है, अतः यह स्पर्शन क्षेत्रके समान कहा है।
नीय और नामकमका जघन्य अनुभागबन्ध परिवतमान मध्यम परिणामोसे होता है. अतः इनके जघन्य अनुभागके बन्धक जीवोंका स्पर्शन कुछ कम आठ बटे चौदह राजु और कुछ कम तेरह बदे
१. श्रा० प्रतौ श्रोधं वेउत्रि० इति पाठः । २. श्रा० प्रतौ जह• अज० श्रटची ० इति पाटः ।
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