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णाणाजीवेहि भंगविचयपरूवणा दंसणा०-अंतराइ० । वेदणी० ज० बं० घादि०४ णि. बं० णि. अज० अणंतगुणव्भहियं० । णामा-गो० णि वं० णि० जह० । एवं णामा-गोदाणं । मोह० ज० बं० छण्णं कम्माणं णि बं० णि. अजहण्णा. अणंतगु० । एवं सुहुमसं० छण्णं कम्माणं । तेउ०- पम्मा० देवोघं । सुक्काए मणुसभंगो।
एवं सण्णियासो समत्तो। १६ णाणाजीवेहि भंगविचयपरूवणा १८२. णाणाजीवेहि भंगविचयं दुविहं-जह० उक्क० । उक्क० पगदं । तत्थ इमं अट्ठपदं-ए उकस्स-अणुभागबंधगा ते अणुक्कस्सअबंधगा। ए अणुक्कस्सअणु० बंध० ते उक्क० अणुभाग० अबंधगा। ये पगदी बंधदि तेसु पगदं अबंधगेसु अव्यवहरो। एदेण अट्ठपदेण अट्ठण्णं क० उक्क० अणुभा० सिया सव्वे अबंधगा, सिया अबंधगा य बंधगे य, सिया अबंधगा य बंधगा य । अणुक्क० अणुभागं सिया सव्वे बंधगा य, सिया बंधगा य अबंधगे य, सिया बंधगा य अबंधगा य। एवं ओघभंगो तिरिक्खोघं पुढ० आउ०-तेउ०-वाउ.. बादरपत्ते-कायजोगि०-ओरालि०-ओरालियमि०-कम्मइ०-णस० कोधादि०४-मदि०सुद० असंज०-अचक्खु०-तिण्णिले०-भवसि०-अब्भवसि०-मिच्छादि०-असण्णि-आहारअणाहारग ति।
वाला जीव चार घातिकर्मका नियमसे बन्ध करता है जो नियमसे अजघन्य अनन्तगुणे अधिक अनुभागका बन्ध करता है । नाम और गोत्रकर्मका नियमसे बन्ध करता है जो नियमसे जघन्य अनुभागका बन्ध करता है । इसीप्रकार नान और गोत्रकर्मकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए। मोहनीय कर्मके जघन्य अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव छह कर्मोंका नियमसे बन्ध करता है। जो नियमसे अजघन्य अनन्तगुणे अधिक अनुभागका बन्ध करता है। इसीप्रकार सूक्ष्मसाम्परायिक संयत जीवोंमें, छह कर्मोंकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिये। पीत और पद्मलेश्यावाले जीवोंमें सामान्य देवोंके समान भंग है। शुक्ल लेश्यावाले जीवोंमें मनुष्योंके समान भंग है।
इसप्रकार सन्निकर्ष समाप्त हुआ।
१६ नानाजीवोंकी अपेक्षा भंगविचयप्ररूपणा १८२. नाना जीवोंकी अपेक्षा भङ्ग विचय दो प्रकारका है-जघन्य और उत्कृष्ट । उत्कृष्टका प्रकरण है। उसमें यह अर्थपद है कि जो उत्कृष्ट अनुभागके बन्धक होते हैं, वे अनुत्कृष्ट अनुभागके अबन्धक होते हैं। और जो अनुत्कृष्ट अनुभागके बन्धक होते हैं,वे उत्कृष्ट अनुभागके अबन्धक होते हैं। इसप्रकार कर्मका बन्ध करते हैं। उनका यहाँ प्रकरण है। क्योंकि अबन्धकोंमें व्यवहार नहीं होता। इस अर्थ पदके अनुप्तार आठ कमों के उत्कृष्ट अनुभागके कदाचित् राव जीव अबन्धक हैं, कदाचित् नाना जीव छाबन्धक हैं और एक जीव बन्धक है, कदाचित् नाना जीव अबन्धक हैं और नाना जीव बन्धक हैं। अनुत्कृष्ट अनुभागके कदाचित् सब जीव बन्धक हैं, कदाचित नाना जीव बन्धक हैं और एक जीव अवन्धक है,कदाचित् नानाजीव बन्धक हैं और नाना जीव अबन्धक हैं। इस प्रकार ओघके समान सामान्य तिर्यच, पृथिवी कायिक, जलकायिक, अग्नि कायिक, वायुकायिक, बादर वनस्पतिकायिक प्रत्येक शरीर, काययोगी, औदारिक काययोगी, औदारिक मिश्रकाययोगी, कार्मणकाययोगी, नपुंसकवेदी, क्रोधादि चार कषायवाले, मत्यज्ञानी, श्रुताज्ञानी, असंयत, अचक्षुदर्शनी,तीन लेश्यावाले, भव्य, अभव्य, मिथ्यादधि, असंज्ञी, आहारक और अनाहारक जीवोंके जानना चाहिये । For Private & Personal Use Only
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