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( १६ ) उसका जयघवला टीका मे जो वर्णन है वह सभी प्रकाशित नहीं है। कषायपाहुड भाग १४ जो कि अभी प्रकाश्य है उसमे प्रकाशित होगा । अतः लब्धिसार वी इस प्रस्तुत टीका मे पंडित टोडरमलज़ी की हिन्दी टीका तथा सस्कृतवृत्ति के साथ-साथ ज ध पु १२ व १३ अाधार रही है, किन्तु गाथा ३०८ से ३६१ तक की टीका जयधवल मूल (फलटन से प्रकाशित) के प्राधार से लिखी गई है।
क्षपणासार की कोई सस्कृत टीका नही है। हा! माधवचन्द्र विद्य देव द्वारा रचित सस्कृत क्षपणासार की दो प्रतिया जयपुर भण्डार से प्राप्त हुई थी जो कि स्वतत्र रचना है अतः वह स्वतत्र कार्य की अपेक्षा रखता है । सम्भव है प टोडरमलजी के समक्ष यह क्षपणासार रहा हो जो उनकी क्षपणासार टीका का अवलम्बन रहा हो। गाथा ४७३ की टीका मे उन्होने अपनी लघता प्रगट करते हुए लिखा है कि-"इस गाथा का अर्थ रूप व्याख्यान क्षपणासार विष किछु किया नही और मेरे जानने मे भी स्पष्ट न आया तातै इहा न लिख्या। बुद्धिमान होइ सो याका यथार्थ अथ होड़ सो जानह ।" इन पक्तियो के प्रकाश मे मेरे अनुमान से एक तथ्य प्रगट होता है कि पडित प्रवर टोडरमलजी के समक्ष क्षपणासार की हिन्दी टीका सहित कोई प्रति होना चाहिए। अन्यथा वे ऐसा क्यो लिखते कि इस गाथा का अर्थ रूप व्याख्यान 'क्षपणासार विपै किछु किया नाही' । माधवचन्द्र विद्य देव द्वारा रचित क्षपणासार सस्कृत भाषा का स्वतत्र ग्रन्थ है वह अर्थ रूप व्याख्यान (टीका) तो है नही । खैर | जो भी हो यह है अनुसधान का विषय । मेरे द्वारा अनुमानित प टोडरमलजी के समक्ष विद्यमान क्षपणासार की भाषानुवादित उस टीका के कर्ता ने भी जयधवल मूल टीका का आश्रय लिया है यह स्पष्ट है।।
क्षपणासार की कर्मक्षपणबोधिनी नामा इस नवीन टीका को भी मैने फलटन से प्रकाशित जयववल मूल (शास्त्राकार) के प्राधार से ही लिखा है, क्योकि क्षपणासार से सम्बन्धित इस विषय की जयधवला टीका हिन्दी अनुवाद सहित सभवत १५-१६ वे भाग के रूप मे मथुरा से अभी तक प्रकाशित नही हुई हैं प्रकाशनाधीन हैं। आत्म निवेदन
उक्त नवीन टीका करने को प्रेरणा मुझे पा क. श्री श्र तसागरजी महाराज से प्राप्त हुई। सन् १९६३ से तो मैं निरन्तर उनके सान्निध्य मे जाता रहा है। इसी शृखला मे सन् १९७१-७२ मे त्रिलोकसार की नवीन टीका (प्रायिका विशुद्धमतीजी द्वारा लिखित) के वाचनावसर पर मुझे भी जाने का प्रसग प्राप्त हुआ था। ६ वर्ष पश्चात् सन् १९७८ मे पुन गोम्मटसार कर्मकाण्ड की 'सिद्धान्तज्ञानदीपिका' नामा नवीन हिन्दी टीका (आर्यिका आदिमतीजी विरचित) की वाचना के अवसर पर प्रा. क श्री के सान्निध्य का लाभ मिला और उस टीका के सम्पादनत्व का भार भी मुझ पर पाया । उक्त वाचना के अवसर पर ही जयपुर निवासी श्रीमान् रामचन्द्रजी कोठारी ने आ क श्री के समक्ष अपनी हार्दिक मनोभावना ब्र लाडमलजी के माध्यम से व्यक्त की थी कि "लब्धिसारक्षपणासार की भी शद्ध प्राधुनिक हिन्दी मे नवीन टीका लिखी जानी चाहिए उसके प्रकाशन का अर्थ भार मैं स्वय वहन करू गा।" कोठारीजी की इस भावना को देखते हुए मुझे प्रेरणा मिली और उसी समय मैंने ा क श्री को अपनी स्वीकृति प्रदान की थी। लगभग १ वर्ष के परिश्रम से मैं इस नवीन टीका को लिख पाया और इसकी वाचना के लिए चातुर्मास प्रवास मे मैं आ क श्री के सान्निध्य मे पहुचा। वाचना के अनन्तर ही फिर मुझे गोम्मटसार जीवकाण्ड की नवीन टीका लिखने