Book Title: Kuvalaymala Kaha Ka Sanskritik Adhyayan
Author(s): Prem Suman Jain
Publisher: Prakrit Jain Shastra evam Ahimsa Shodh Samsthan
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कुवलयमालाकहा का सांस्कृतिक अध्ययन अलंकार एवं छन्द के अतिरिक्त रूपचित्रण, प्रकृतिचित्रण, वस्तु-वर्णन, संवादसंयोजन आदि की दृष्टि से भी सशक्त है।'
कथाओं में लोकतत्त्वों का समावेश
कुवलयमालाकहा में कथानक के रूप में वैसे तो एक ही प्रमुख कथा है, जो परम्परानुगत धार्मिक तत्त्वों से अधिक सम्वधित है। लेकिन उसकी अवान्तर कथाओं में अनेक लोकतत्त्व विद्यमान हैं। उनमें लोककथा के लोकधर्म, लोकचित्र एवं लोकभाषा ये तीनों ही तत्त्व उपलब्ध होते हैं।
___ इन कथाओं में लोककथा तत्त्वों का समावेश स्वभाविक ढंग से हुआ है। उद्योतनसूरि का युग (८ वीं शताब्दी) अन्धविश्वास, तन्त्रमन्त्र, हिंसामयी पूजा, नाना मतवाद एवं अध्यात्म-सम्बन्धी विभिन्न मान्यताओं का था। समाज, साहित्य में लोकभाषा प्राकृत की बहुलता थी। प्रत्येक प्रबुद्ध साहित्यकार समकालीन सामाजिक परिस्थितियों से प्रभावित होता है। वह जाने-अनजाने रूप में लोकमानस से प्रभावित होकर लोक-संस्कृति की विवेचना करता चलता है। उद्द्योतनसूरि ने कुवलयमाला की इन कथाओं को लोकभाषा प्राकृत में लिखा है । अतः स्वभाविक रूप से लोक-चेतना एवं लोक-संस्कृति की अनेक छवियाँ इनमें अंकित हो गयी हैं। विश्लेषण करने पर कुवलयमाला की इन अवान्तरकथाओं में निम्नांकित लोककथा के तत्त्व उपलब्ध होते हैं :
(१) मूल प्रवृत्तियों का प्रतीकात्मक विश्लेषण (२) लोकमंगल (३) रहस्योद्घाटन (४) कुतूहल (५) उपदेशात्मकता (६) अनुश्रुति-मूलकता (७) साहस का निरूपण (८) पुनर्जन्म का प्रतिपादन (९) मिलन-बाधाएँ (१०) हास्य-विनोद (११) अन्धविश्वास (१२) अमानवीय तत्त्व (१३) प्रेम के विभिन्न रूप (१४) जनभाषा (१५) लोकमानस (१६) परम्परा की अक्षुण्णता आदि।
इन लोकतत्त्वों के तुलनात्मक अध्ययन के लिए स्वतन्त्ररूप से विवेचन करना अपेक्षित है। मैंने कुछ फुटकर निवन्धों द्वारा इन पर प्रकाश डाला है।
१. द्रष्टव्य-कुवलयमालाकहा का गुजराती अनुवाद-उपोद्घात, पृ० ४० २. द्रष्टव्य-लेखक के निम्न निबन्ध
(१) 'कुव० की अवान्तर कथाओं का लोकतात्त्विक अध्ययन' (२) 'आठवीं शताब्दी के प्राकृत ग्रन्थों में लोकतत्त्व'
-अनुसंधान पत्रिका जुलाई-७३ (३) 'पालि-प्राकृत कथाओं के अभिप्राय : एक अध्ययन'
-राजस्थानभारती भाग ११ अंक ४.