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सत्ता भी आजकल के साहित्य - धुरन्धरो को सह्य नही । सत्यनारायणजो के रोम-रोम ओर श्वास- श्वास मे ब्रजभाषा और ब्रजभूमि का अनन्य प्रेम भरा था । यह पूर्व जन्म की प्रकृति थी --
(सतोव योषित् प्रकृतिश्च निश्चला पुमासमभ्येति भवान्तरेष्वपि )
जन्मान्तरीण संस्कार थे, जो उन्हें बरबस इधर खीच रहे थे । " मोइ तो ब्रज मे ही छोडि के अन्त कहू अच्छी नाय लगै गौ । मै तो व्रज मे ही आऊँगी -- मेरी व्रज की ही वासना है । "
(पृष्ठ ३४८) अष्टछापवाले किसी
उतरी थी । अन्यथा
उनके इन उद्गारो से दृढ धारणा होती है कि महाकवि महात्मा की आत्मा सत्यनारायण के रूप मे इस ... ... काल में यह सब कुछ कब सम्भव था । यह तो दलबन्दी का जमाना है, विज्ञापनबाजी का युग है, सब प्रकार की सफलता 'प्रोपगडा' पर निर्भर है, जिसे इन साधनो का सहारा मिला, वह गुब्बारा बनकर ख्याति के आकाश में चमक गया । गरीब सत्यनारायण को कोई भी ऐसा साधन उपलब्ध न था । यही नहीं, भाग्य से उन्हे कुछ मित्र भी ऐसे मिले जिन्होंने उनके बेहद भोलेपन को अपने मनोविनोद की सामग्री या तफरीह तबा का सामान समझा; जिन्होने दाद देने या उत्साह बढ़ाने की जगह उनकी तथा व्रजभाषा के अन्य कवियो की कविताओ की हास्योत्पादक समालोचना करना ही सन्मित्र का कर्तव्य समझा था, और हाय उनकी उस जन्म-भर की कमाई 'हृदय-तरङ्ग' को, जिसे याद कर-करके वे सदा दुख के सॉस लेते रहे, दरिद्र के मनोरथ की गति को पहुँचानेवाले भी तो उनके सुहच्छिरोमणि कोई सज्जन ही थे। ऐसी प्रतिकूल परिस्थिति में पलकर ओर ऐसी कद्रदान सोसाइटी पाकर भी आश्चर्य है, सत्यनारायण " कवि - रत्न" के कहला गये । इसे स्वामी रामतीर्थं जैसे सिद्ध महात्मा का आशीर्वाद या अष्ट की महिमा ही समझना चाहिए ।
सत्यनारायण के सदगुणों का पूर्ण परिचय अभी संसार को प्राप्त नही
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