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प० सत्यनारायण कविरत्न
जाय मदरसा तिनते कहु तुम पालागन मम ताता ।। विनय सहित विनती करि दोजो पत्रिहु नॉहि पठाई। किहि कारण इतने दिननि सों अदया-दृष्टि लखाई ।। कछक दिनन के मॉहि आप के ग्राम बीच मै आवौ । विजय सनातनधर्म सभा की तुमको खूब सुनावी ।। अब कछ ओर लिखत नहिं आवै करहुँ इत्यलम् ताते । सुधिकर शीघ्र पत्र तुम भेजो सुखी होय मन जाते ॥
श्रीबालमुकुन्दजी गुप्त की भविष्य वाणी २२ अगस्त सन् १६०३ "भारतमित्र'' मे सत्यनारायण की निम्नलिखित कविता छपी थी--
बिरथा जन्म गमायो अरे मन। . रच्यो प्रपच उदर-पोषण को राम की नाम न गायो। तरुनिन तरल त्रिवलि को लखि के हाय फिरयो भरमायो॥ रहयो अचेत चेत नहिं कीन्हो सगरो समय वितायो । माया जाल फॅस्यो हा अपुते उरझि भलो वौरायो । पर तिय को हिय देत न हिचकत नैंक नहीं सरमायो। भगवा भेष धरयो ऊपर ते नाहक मूड़ मुडायो । जन-मन-रजन भव-भय-भजन अस प्रभु को बिसरायो । नित प्रति रहत पाप मे रत तू कबहुँ न पुण्य कमायो । मगलमय को नाम तज्यो तू विषयन सो लिपटायो। सत्यनरायन हरिपद पकज भजो होय मन भायो ।
२५।५।१९०३ इस पर टिप्पणी करते हुए श्रीबालमुकुन्द गुप्त ने लिखा था
"यह एक बालक की कविता श्रीयुत प० श्रीधरजी पाठक की मार्फत हमारे पास पहुँची है । बालक तबियतदार है। यदि अभ्यास करेगा तो