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सत्यनारायणजी को कुछ स्मृतियाँ प्रदर्शनी देखने के लिये प्रयाग पहुँचा और उधर सत्यनारायणजी भी आगरे से आये । काग्रेस पण्डाल मे, काग्रेस के अधिवेशन से एक दिन पहले, मैं एक बगाली सज्जन से बाते कर रहा था। बाते समाप्त होने पर उक्त बंगाली सज्जन ने मुझसे मेरा पता मांगा ! मैने अपना एक कार्ड उक्त बंगाली सज्जन को दिया। मेरे पीछे सत्यनारायणजी खड़े हुए थे, पर मुझे इसकी कुछ खबर न थी। बङ्गाली सज्जन के चले जाने के पीछे सत्यनारायणजी धीरे से सामने आकर खडे हो गये और मुककर मुझे नमस्कार किया। मेरी स्मरण शक्ति मे एक बडा भारी दोष है। वह यह कि मनुष्य के पहचानने मे सदैव मुझे धोखा देती है जिसके कारण एक दिन मै अपने प्यारे बन्धु बदरीनाथजी तक को नही पहचान सका था। सत्यनारायणजी को भी मै नही पहचान सका था। सत्यनारायणजी ने पहले जो नमस्कार किया वह भी व्यंग्यपूर्ण था पर अब तो उनकी व्यग्योक्ति का कुछ ठिकाना ही न रहा । उन्होने मजाक करते हुए ब्रजभाषा-मिश्रित देहाती बोली मे मुझसे कहा-"हम तौ गमार आदमी है, हमारे पास विजिटिङ्ग-फिजिटिङ्ग कार्ड नॉय ।" उनके मुख से इस प्रकार के शब्दो की लड़ी निकलती हुई देखकर मै पहचान गया कि ये और कोई नही, सत्यनारायणजी है। हाथ जोड़कर मैने उनसे क्षमा मांगी, पर वहाँ तो बुरा मानने से कुछ सरोकार न था। वहाँ तो 'विजिटिङ्ग कार्ड' और वर्तमान सभ्यता को दिल्लगी थी-और खासी दिल्लगी थी। x x x जब-जब सत्यनारायणजी से मिलना होता था तब-तब साहित्य-समाज, काव्य और देश-सम्बन्धी बाते होती थीं। जब बाते समाप्त हो जाती और बिछुड़ने का समय होता तब वे मुझसे व्यंग्यपूर्ण शब्दों में कहते -'अजी आप एडीटर है, हम गमार देहाती आदमी ठहरे । आप इसकी आलोचना अच्छी कर सकते है।" ___ सत्यनारायणजो की अनेक बाते इन पक्तियों के लिखते समय याद आ रही है और उनकी मधुर मूर्ति आँखो के सामने नाच रही है। क्या कहै ? अधिक कहने-सुनने की अपने मे सामर्थ्य भी नहीं है।"