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सत्यनारायणजी की कुछ स्मृतियाँ
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के विकास के लिये भला इससे अधिक उपयुक्त स्थान और कहाँ मिल सकता था ?
क्या इसी छत पर से वह ध्वनि कभी निकली थी ?-- "भयो क्यों अनचाहत को संग "
फिर हम उस कमरे मे गये जहाँ सत्यनारायण ने अपनी अन्तिम स्वाँस ली थी। कमरा टूटा-फूटा और गिरा हुआ था। राधाकृष्ण ने कहा-" मरते समय सावित्री सामने खड़ी थी । सत्यनारायण ने इशारे से उसे सामने से अलग करा दिया !"
श्रीमती सावित्रीदेवी ने अपने १६ । १२ । १८ के पत्र मे लिखा था--" मैंने कई आवाजे दी, सब निष्फल । जोर से घबराकर मैंने अपना हाथ सिरहाने की तरफ पट्टी पर देमारा । एकदम चौककर मेरी ओर देखा और सदा के लिए हतभागिनी से विदा लेली !”
६ वर्ष बाद, उसी स्थान पर -- स्थान नही, ब्रजभाषा के अन्तिम कवि के तीर्थ स्थान पर -- खडा होकर मैं सोचने लगा--"सत्यनारायण की उस अन्तिम दृष्टि मे क्या भाव भरे थे ?"
प्रिय पाठक, क्या आप इस प्रश्न का उत्तर दे सकते है ? आप कल्पना कीजिये और मुझे विदाई दीजिए ।