Book Title: Kaviratna Satyanarayanji ki Jivni
Author(s): Banarsidas Chaturvedi
Publisher: Hindi Sahitya Sammelan Prayag

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Page 245
________________ सत्यनारायणजी की कुछ स्मृतियाँ २०३ यही आकाश उस ब्रज-कोकिल के मधुर स्वर से गुंजरित होता था। आगे मुझे वृक्षो के निकट एक प्याऊ दीख पडी। ग्रीष्म ऋतु मे धाँधूपुर से आते हुए सत्यनारायणजी यहाँ कभी-कभी पानी पिया करते थे। क्या इसी को ध्यान में रखते हुए उन्होने ग्रीष्म-गरिमा में लिखा था-- ताप बस है अत्यन्त अधीर कहूँ कुलिलत नहि बछरा गाय । द्रुमन तर पी प्याऊ को नीर, फिरत जिय जरनि तऊ ना जाय ।। सडक के दोनो ओर नीम वृक्ष थे जो सत्यनारायण के साथ ही साथ बड़े हुए थे। मै कल्पना कर रहा था कि कही सत्यनारायण इन्हीं के पास से निकलकर यह कहने लगे--"क्यों भैया, मेरी ही कुटी पै चलती का ? चलो।" मार्ग मे कई बार मेरा हृदय भर आया और आखे डबडबा आईं। लगभग एक घण्टे मे धाँधूपुर पहुँचा । सत्यनारायण का चित्र और उनकी जीवनी का सामान उन्ही के मन्दिर मे जाकर रक्खा । उस समय मै सोच रहा था--अहा ! क्या ही अच्छा होता यदि मै कभी सत्यनारायणजी के सामने ही धाँधूपुर आता । ___ तांगा धाँधूपुर पहुँचा । गाँववालो को मैंने सत्यनारायणजी के मन्दिर पर बुलाया । गेदालाल जाट, राधाकृष्ण, रामहेत, तुलाराम तथा अतरसिह इत्यादि अनेक आदमी वही आये । जब मैंने सत्यनारायण के चित्र को वहाँ खोला तो गाँववाले बोले-"बस महाराज, जामे तो जान डारिबे की देर हैं । जे तो मानो बोले इ देते !" पर सत्यनारायण के वालसखा रामहेत की आँखों में आंसू थे ! उन्हें देखकर मैंने कहा--'बस मेरा परिश्रम सफल है । सत्यनारायण के किसी मित्र का उनकी पवित्र स्मृति मे दो आँसू बहाना, इससे अधिक मुझे चाहिए हो क्या ?" बड़ी देर तक बातचीत हुई । जब सत्यनारायण के प्रेमी साथी उनके गुणो का वर्णन अपनी मधुर ग्रामीण भाषा मे कर रहे थे, कई बार उस करुणामय दृश्य से मेरा हृदय द्रवित होगया । लेकिन जब गेदालाल जाट ने

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