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सत्यनारायणजी की कुछ स्मृतियाँ
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का विचार करते हुए यह कहने में कोई अत्युक्ति नही कि पंडितजो ने अपने
कवित्व द्वारा अनुवाद-नीरसता की बहुत कम झलक अपने ग्रन्थो में आने । दी है।
उनकी कविता हृदयग्राही, ओजस्विनी तथा अलंकार-युक्त होने पर भी स्वाभाविकता से कम गिरने पाती थी। उनके भाव-वैचित्र्य तथा वर्णन-शैली का बडा गहरा प्रभाव पड़ता था । इनके लेखों मे व्यक्तित्व का आभास मौजूद है । पडितजी के गद्य लेख भी अपने ढङ्ग के निराले होते थे । उन्हे पद्यमय गद्य कहना उचित होगा । आपके ब्याख्यान सुनने मे भी बडा आनन्द आता था। गद्य-पद्य का उचित समावेश कर आप उन्हे बड़ा मनोहर तथा ललित बना दिया करते थे।
मै पडितजी से उनकी छोटी-छोटी त्रुटियो और विशिष्ट गुणो दोनों ही के कारण प्रेम रखता था। उनकी बुद्धिमत्ता तथा सरलता दोनो ही पर मै मुग्ध था। उनके निश्चल देश-प्रेम तथा उनकी अहर्निश निस्वार्थ साहित्य-सेवा के लिये मै उनकी प्रशसा करता था। ६ वर्ष तक पडितजी के ससर्ग का सौभाग्य मुझे प्राप्त हुआ था। इस बीच मे मुझे जो अनुभव हुए उन्ही को मैने संक्षेप मे लिख दिया है । ऐसा करने में मुझे मजबूर होकर कुछ निजी बाते भी लिखनी पडी है । आशा है कि उनके लिये विज्ञ पाठक मुझे क्षमा करेगे।'
श्रीयुत नन्दकुमार देव शर्मा "लगभग १०-११ वर्ष तक मुझे भी सत्यनारायणजी के मित्र होने का सौभाग्य प्राप्त हुआ था । उनसे मेरा परिचय सन् १९०८ मे प्रिय बन्धु श्रीयुत बदरीनाथजी भट्ट द्वारा हुआ था। उन दिनों मैं "आर्यमित्र" का सम्पादक था । भट्टजी आगरा कालेज के विद्यार्थी थे । वे एफ० ए० क्लास मे पढते थे। जून मास-सा गर्मी का विशेष प्रकोप था। प्रोफेसर राममूर्ति कई स्थानो मे अपने अद्भुत खेल दिखलाते हुए आगरे पहुँचे थे। बदरीनाथ जी और मेरी दोनो की इच्छा राममूर्ति के खेल देखने की हुई । भट्टजी