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अन्तिम दिवस और मृत्यु
१५१ सका। दो-चार धक्के जरूर मिले । लौटकर पडितजी बोले- क्यों भैया, जि मोते कौनसी अदावटि को बदलौ काढयो जो मोइ टिकट लैबे भेजि दयौ म्हाँ तो चिंटी केऊ धसिवे कू ठौर नाय । खिरकिया पै पेलमपेला है रही है, टिकट कैसे लाऊतो?" हम लोग खूब हँसने लगे। फिर दूसरा साथी जाकर टिकट ले आया। रेल आगई और झटपट सब साथी एकही डिब्बे मे घुसकर बैठ गए। मै उनके पासही बैठा था। पंडितजी ने मुझे अपना "भ्रमर-दूत" सुनाया। फिर मुझ से कहा-"तुमऊ कछु सुनाऔ।'' मैंने कहा--"क्या सुनाऊँ ?" सत्यनारायणजी ने कहा--"अच्छा तो अपने ब्याह की कथा सुनाऔ कि फिजी मे तुम्हारी ब्याह कैसे भयो । फिर मैऊ अहने ब्याह की कथा तुम्है सुनाऊँगो।" इसी प्रकार बातचीत होती रही।
हम लोग मोरटक्का स्टेशन पर उतरे और वहाँ से ओङ्कारेश्वर के लिये बैलगाड़ी किराये करने की तदबीर होने लगी। बैलगाडी वाला २) रुपया प्रति सवारी मॉगने लगा। पंडितजीने कहा--चलौ सत्याग्रह करीपैदल चली। फिर गाड़ीवाला आठ आने सवारी पर आगया, लेकिन हम लोगो ने तो सत्याग्रह कर दिया था ! पैदल चल पड़े । एक गठरी सत्यनारायणजी ने अपने सिर पर रखली और एक मैने । मैने उनसे पूछा"आप अपने विवाह से सन्तुष्ट तो है ?" सत्यनारायणजी ने कहा-“का कहै ! कछु कहत बन्ति नाँइ । तुम हमारे घर को ठेका ले लेउ । जमीदारी मन्दिर सब तुमको सौपि देइगे और हमै छट्टी देउ"। इस प्रकार बातचीत करते हम नर्मदा के पवित्र तट पर जा पहुँचे । नाव तैयार मिली । सब नाव मे बैठे और उस पार पहुंचे। एक पंडे ने हमको अपने मकान मे ठहरा दिया। सत्यनारायणजी को वहाँ सामान की रखवारी के लिये बिठलाकर हम लोग भोजन की तलाश मे निकले । लौटकर देखा तो पंडितजी लापता | सब जगह तलाश किया--कही पता न लगा। फिर हम लोग ओङ्कारेश्वर के मन्दिर मे पहुँचे। वहाँ एक सिपाही ने उन्हे कोने मे बिठला रक्खा था। वहाँ राजा की ओर से एक सिपाही रहता