________________
१८६
प० सत्यनारायण कविरत्न तक आपका नाम भी सभी लोगो पर प्रभाव के साथ परिचित न था । उस समय मैंने अपने उत्तर-दायित्व पर बाबू पुरुषोत्तमदासजी से आग्रह कर कविता पढने की आज्ञा दिलायी। कविता आरम्भ करते ही सबका सन्देह दूर हो गया । पहले कपिता के सम्बन्ध मे जिन्हे सन्देह था वे तथा अन्य उपस्थित सज्जन वाह-वाह करने लगे । फिर तो धीरे-धीरे आपकी कविता का आदर इतना बढ़ा कि आप राष्ट्रीय कवि माने जाने लगे।
द्वितीय हिन्दी-साहित्य-सम्मेलन के साथ ही २६ सितम्बर से प्रयाग में तृतीय वैद्य-सम्मेलन हुआ था। उसमे भी आपने स्वागत सम्बन्धी कविता पढी थी। कौशल से उसमे सभापति कविराज गणनाथ सेन, स्वागत-सभापति पंडित शिवराम पाडे और मंत्री प० जगन्नाथप्रसाद शुक्ल का नाम सन्निवेशित कर दिया था। कविता लोगो को बहुत प्रिय हुई । आपके नाम के साथ कविरत्न शब्द लगे रहने से बहुतो को यह बोध हुआ कि आप बगाल के कविराजो के समान 'कविरत्न' उपाधिधारी वैद्य है । इसलिये आपके लिये सभापति बनाने के लिये कई सज्जनो की चिट्रियाँ अगले वर्षों मे आई। मथुरा के पंचम वैद्य-सम्मेलन के समय जब मैने आपमें इस बात का जिक्र किया तब आप बहुत हँसे । प्रयाग के वैद्य-सम्मेलन के समय की एक बात मुझे अब तक नही भूली है। यद्यपि उस पर आजकल के लोग हँसंगे; किन्तु में उसे लिख देना आवश्यक समझता हूँ। जिस समय आप अपनी स्वागत की कविता पढ रहे थे और लोग तन्मय होकर सुन रहे थे उसी समय जब इस पद का आरम्भ हुआ कि "शकर दाजी शास्त्रि पदे की मुदित आतमा प्यारी । देखहु वह आशीश देति है पुलकित तन बलिहारी" और लोगो ने इसे फिर दुहराने के लिये कहा, उसी समय सभा में एक सर्प निकल पड़ा। उसके निकलते ही खलबली मच गई । किन्तु सर्प एक ओर गोडरी मार कर स्थिर भाव से फन निकाल बैठ गया । किसी ने कहा स्वयं स्वर्गवासी शकर दाजी शास्त्री पदे है, किसी ने कहा चरक भगवान है । जो हो, किन्तु जब तक यह पूरी कविता समाप्त नहीं हुई तब तक वह सर्प वही स्थित रहा और ज्योही कविता समाप्त होगई,त्योही वह भी एक ओर खिसक गया !