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39 स्मृतिया
सत्यनारायणजी की फुछ स्मृतियाँ १८७ मथुरा के वैद्य-सम्मेलन के समय हिन्दी-साहित्य के प्रेमियो और सेवको का भी एक छोटा दल उपस्थित हो गया था। कविरत्न सत्यनारायणजी, नवरत्न पं० गिरिधर शर्मा झालरापाटन, अधिकारी जन्नाथदास विशारद, गोस्वामी लक्ष्मणावार्य, प० नन्दकुमारदेव शर्मा तथा पडित लक्ष्मीधर वाजपेयी प्रभृति मुझ पर कृपा कर उपस्थित हुए थे। इन सबो के कारण एक दिन दो घटे के लिये यह मालूम होने लगा कि यह वैद्य-सम्मेलन नहीं बल्कि हिन्दी साहित्य-सम्मेलन हो रहा है। x x x उस समय आप का स्वास्थ्य बहुत बिगडा हुआ था । अपने गुरू की सम्पत्ति के अधिकारी होने के सम्बन्ध मे आप जो मुकद्दमा लड रहे थे उसको दौड़-धूप के कारण आप को स्वास्थ्य से हाथ धोना पड़ा था। मैने उस समय उन्हे सम्मति दी थी कि आप यदि विवाह कर ले तो आपके स्वास्थ्य मे उन्नति हो सकती है । उस समय तो यह बात हँसी मे उड़ा दी थी किन्तु एकाध पत्र मे भी जब मैने यही बात लिखी तब आपने मुझ से कहा था कि एक बार स्वास्थ्यसम्पन्न हो जाने पर यह हो सकता है । मैं नहीं कह सकता कि विवाह करने के सम्बन्ध मे मेरा कथन भी किसी अंश मे कारणीभूत हुआ था या नही। विवाह के पश्चात्, केवल एक बार मेरी उनसे मुलाकात हुई थी। इन्दौर के साहित्य-सम्मेलन मे न पहुँच सकने के कारण उनकी अन्तिम कविता उन्ही के मुख से सुनने का सौभग्य प्राप्त न हो सका । उनका स्वभाव जो सर्वश्रुत था, उसका मुझे भी अनुभव है। उनका स्वभाव सरल था, बर्ताव पूर्ण सभ्यता-युक्त था । बात करने का ढङ्ग मनोहारी था और मित्रो के साथ वे निष्कपट प्रेम करते थे । साधारणत: हँसी-मजाक करने पर आप केवल मुस्करा देते थे और कभी-कभी मीठी चुटीली बात उत्तर मे सुना कर चुप हो जाते थे। किन्तु काव्य की आलोचना होने पर, विशेषकर ब्रजभाषा पर कुटिल आक्षेप होने पर, आप क्रोध के मारे आपे से बाहर भी हो जाते थे; किन्तु अपने आलोचक से कभी अभद्र व्यवहार नही करते थे। आपको कविता मधुर, रसीली, चुटीली, भावपूर्ण और ऊँचे तथा सरल हृदय के उद्गारो से पूर्ण रहती थी। व्रजभाषा मे होने से वह अधिक कर्ण-सुखद हो