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सत्यनारायणजी की कुछ स्मृतियाँ १८९ नेत्रो के सामने है । हम लोग इस विषय मे उन्हें बहुत कुछ कहते थे, पर वे तो सरलता की मूर्ति थे, हँसकर चुप हो जाया करते थे। वे बेहद भोले थे और हम लोगो पर पूर्ण विश्वास रखते थे। प्राय धूप मे गाँव से चलकर आने से उनके सिर मे पीडा हो जाती थी। इस अवसर पर जब हमलोग भट्टजी की बैठक मे लेटे होते थे तो भट्टजी सिर का दर्द दूर करने के बहाने उनसे तरह-तरह की कवायद कराया करते थे और पडितजी भी, जैसा उनसे कहा जाता, वैसा करने के लिये तैयार हो जाते थे। कभी उन्हे आँख मीचकर लेटाया जाता था तथा उनके माथे पर हाथ फेरकर भट्टजी बड़ी गम्भीरता से "छ-मतर" पढते थे । कभी मेस्मरेजम द्वारा उनका दर्द दूर किया जाता था | पर थोडी देर इन सब क्रियाओ के हो जाने के बाद उनसे जब पूछा जाता--अब आपके सिर का दर्द कैसा है ?" तो उनका यही उत्तर होता था--"अब तो नही मालूम होता है ।" उनकी सरलता के अनेको उदाहरण है। जिसने उन्हे एक बार देखा वह उनकी सरलता तथा निष्कपट भावना से आकर्षित हुए बिना नही रह सका। उनके सारे जीवन का रहस्य उनकी सरलता तथा प्रेम था।
भरतपुर मे जब वहाँ की हिन्दी-साहित्य सभा का वार्षिक अधिवेशन हुआ था, मै तथा कुँवर नारायणसिंह पण्डितजी के साथ थे। हम लोग एक ही जगह रहे और रात को उनके बहुत हठ करने पर भी उन्ही के पास सोये । इस समय भी उनको दमे से कष्ट था और वे रात को पेट के बल सोया करते थे तथा प्राय सारी रात उन्हे खॉसते बीतती थी । इसी कारण उन्होंने हम लोगो से अपने पास न लेटने देने की हठ की थी। इसी रात को एक घटना यह हुई कि पण्डितजी के बार- बार खॉसने से ग्वालियर से आये हुए कुछ प्रतिनिधियो की नीद मे खलल पड़ा और जब वे इस विषय की शिकायत आपस मे करने लगे और पण्डितजी के भी कानो मे यह भनक पड़ गई तो आपने कविता सुनाना शुरू किया। इस पर वे लोग सोना भूलकर हम लोगो के बिस्तरे पर उठ आये और पंडितजी से और भी कविता सुनाने के लिये प्रार्थना की। इसके पूर्व हम लोग सो रहे थे । जब कविता