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सत्यनारायणजी का व्यक्तित्व
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किसी लेखक ने अपनी पुस्तक 'मनोविलास' पंडितजी के पास भेज दी । आपने उसकी स्वीकृति इन पक्तियो मे दी -- देखा मनोविलास |
पढकर पूरन प्रेम भाव का उर मे हुआ विकास ॥ यही विनय है सतचित आनंद पावन जगदाधार । दे सामर्थं तुम्हे जिससे हो हिन्दी का उपकार ॥ अपने एक मित्र को पत्र लिखते है
आहा आई आई आई तव पत्री अनन्त सुखदाई | दरसन - बिरह - बिथित जो अँखियाँ तिनकी तपति बुझाई ॥ ज्योही हँसमुख चपल चारु चखलौनी छबि दरसाई । ललकि धरी सो धाइ हृदय मे पलक कपाट चढाई ॥ लहि इकन्त निहचन्त सकल विधि सत्य करत मनभाई ।
अपने परम मित्र लक्ष्मीदत्तजी के यहाँ गये । उन दिनों लक्ष्मीदत्तजी डाक्टरी पढ रहे थे । आपने पद्य लिखकर उनके दरवाजे पर टांग दिया ।
प्रथम पाठ जो पढत हम मानव-जाति सनेह | हमारी सकल विधि विमल दया को गेह ॥
वैश्य बोर्डिङ्ग - हाउस मे गये। रात के ८ बजे थे । उनके मित्र माधुरी प्रसादजी ने कहा--" पडितजी, हमारी हस्तलिखित पत्रिका "भारती" के लिये कुछ कविता लिख दीजिये" - सत्यनारायणजी ने उत्तर दिया – “ इस वक्त दिमाग काम नही करता ।" अयोध्याप्रसादजी पाठक के धर के लिए चल दिये। मुजफ्फरखॉ के बाग तक पहुँचे थे कि लौट आये और बोले- 'अच्छा लेउ लिख लेउ'
अक्षर ब्रह्मविचार सार में मग्न मुदित मन । प्रकृति हंस आसीन स्वयं प्रतिभा नव जीवन ॥ बिलसत प्रभा प्रदीप्त मंजु मुख मंडल पावन । ब्रह्मचय्यं पूरन प्रताप जगमगत सुहावन ॥