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प० सत्यनारायण कविरत्न
हँसी-मजाक
सत्यनारायणजी खूब हँसते-हँसाते थे । मीठी-मीठी चुटकियाँ लेना भी जाते थे : जब आप आगरे के चतुर्वेदी सम्मेलन में सम्मिलित हुए तो मैंने मजाक में कहा -- "पडित, आप सनाढ्य से चीवे खूब बने" । सत्यनारायणजी ने उत्तर दिया- "आप भी तो कभी-कभी पडित तोताराम सनाढ्य के नाम से लिखा करते है इस लिए आप भी सनाढ्य हुए। बात यह हुई है कि एक चौबेजी सनाढ्य बन गये है, और एक सनाढ्य ने चतुर्वेदी जाति की शरण ली है !"
मैने कहा - "तब तो हर तरह से हमारी जाति का लाभ ही लाभ .हुआ है । एक थर्डक्लास लेखक की जगह उसे एक कविरत्न मिल गया है ।" मुस्कराकर पंडितजी चुप हो गये । कभी-कभी आप कहा करते थे---- "चतुर्वेदी केदारनाथजी ने सनाढ्यों के पत्र का कुछ दिनो तक सम्पादन किया था | आज मैं "चतुर्वेदी" का सम्पादन करके उसी का बदला दे रहा हूँ ।"
तुम्हारा खानसामा
एक बार सत्यनारायणजी किसी मित्र को पत्र लिखने बैठे । आप ने सोचा कि पत्र के अन्त मे कोई उर्दू शब्द लिखना चाहिए। बहुत कुछ सोचा पर कोई अच्छा शब्द याद न आया । इसलिये आपने अन्त मे लिखा"तुम्हारा खानसामा सत्यनारायण" । बहुत दिन तक "तुम्हारा खानसामा " का मजाक रहा । सत्यनारायणजी के मित्र श्रीयुत केदारनाथजी भट्ट व चतुर्वेदी अयोध्याप्रसादजी इस मजाक की याद करके हँसा करते थे ।
निरभिमानता
भूपसिंह नामक एक सज्जन सत्यनारायण के साथी थे । चार-पाँच वर्ष पहले मिठाकुर में पढ़े थे और पीछे वही पढाने भी लगे । वे भी कुछ कुछ कविता करते थे । उनकी कविता का नमूना एक सज्जन ने बम्बई मे हमें सुनाया था।