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अन्तिम दिवस और मृत्यु
प्यारे ॥
श्री घनश्याम प्रेम के पपिया रसनिधि मीन प्रबीन । दया- द्रवित तव हृदय मनोहर निरमल नित्य नवीन ॥ सरल सुभाव अभेद अनूपम मति अनन्य तब भ्राजै । मनहुँ प्रतीति प्रीति प्रतिभा प्रिय पुण्य प्रबाह बिराजै ॥ प्रेम-पुनीत मार्ग के गामी सब जग के उजियारे 1 प्रभुपद-पद्म-पराग राम के अलबेले अलि हिन्दू - नयन-चकोर चन्द्र तुम नवजीवन सहृदय हृदय - कुमोद खिलावन मोद भरन चरन- कमल तव दरसि परसि-हम हरे भरे फूलत ज्यों द्रुमलता सुमनयुत लहि ऋतुराज यह जातीय बेलि जो हिन्दी जन हिय बन पुलकि सींचिये ऐसी बस जो अब नहि सूखन मोहन प्यारे तुमसों निसदिन बिनय विनीत हमारी ।
विस्तारक |
उपकारक ॥
भये आज ।
स्वराज ।।
लहरावै ।
पावै ॥
हिन्दू हिन्दी हिन्द देश के बनहु सत्य हितकारी ॥
जिस समय सत्यनारायण यह कविता पढ़ रहे थे, सम्पूर्ण मंडप करतल ध्वनि से गूँज रहा था। इसके बाद उन्होंने बड़ी श्रद्धा-भक्ति से गाँधीजी की ओर मुख करके और श्रद्धा-भक्ति पूर्वक सिर नवाकर कहा -- " अब कुछ महाराज की सेवा में एक तुकबंदी निवेदन करूंगा” फिर उन्होंने “श्री गान्धी - स्तव" पढ़ा। जिस समय उन्होंने यह पद्य पढ़ा-
तुमसे बस तुमहीं लसत, और कहा कहि चित भरें । 'सिवराज' 'प्रताप' ऽरु 'मेजिनी ' किंन-किन सों तुलना करें ॥ जिस समय उन्होंने यह पद्य पढ़ा था उस समय उपस्थित जनता प्रेम-विह्वल हो गयी थी । स्तव का अन्तिम पद यह था ----
अहिं सारथी बने कमलदल आयत लोचन, अरजुन सों बतरात बिहँसि त्रयताप बिमोचन |
जब बिधि देत यही पुनि-पुनि समझावत, ' दैन्य' पलायन' एकहु ना मोहि रन में भावत ।
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