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पं० सत्यनारायण कविरत्न का अपराध क्षमा कीजिये। “चहिय विप्र-उर क्षमा घनेरी" । यह सुनकर पंडितजी मुसकराते हुए हाथ जोड़कर कहने लगे-"ठाकुर साहब, आप क्षत्रिय है ! ब्राह्मण तो सदा क्षत्रियो के आश्रित रहे है । क्षमा-फमा काहे की" ___ कुछ प्रस्तावों के पास ही जाने के बाद महात्मा गाँधीजी ने प्रोग्राम मे पढकर कहा--"अब सत्यनारायण कविरत्न अपनी कविता सुनावेगे"। सत्यनारायणजी अपनी मिरजई सँभालते हुए तथा कागज के दो डुकड़े हाथ मे लिये उठे और मेज़ के निकट खडे हो गये । मञ्च पर बैठे राय साहबो और रायबहादुरो को कुछ हँसी-सी आई। सत्यनारायणजी ने रसखान के ये दो कवित्त पढ़े-- वा लकुटी अरु कामरिया पर राज तिहूँर को तजि डारो। आठहुँ सिद्धि नवौ निधि को सुख नद की गाय चराय बिसारो। रसखान कबो इन नैननु ते ब्रज के बन-बाग-तड़ाग निहारों । कोटिन हू कलधौत के धाम करी के कुंजन ऊपर वारों ।
मानुस हों तो वही रसखान बसौ मिलि गोकुल गॉप के ग्वारन । जो पसू हों तो कहा बस मेरो चरो नित नन्द की धेनु मझारन । पाहन हो तो वही गिरि को जो कियो ब्रजछत्र पुरन्दर धारन । जो खग हों तो बसेरो करौ वहि कालिन्दी कूल, कदम्ब की डारन ।
इन कवित्तो को सत्यनारायणजी ने ऐसे मधुर स्वर से पढा कि सारे पडाल में सन्नाटा छा गया। श्रोतागण दग रह गये। फिर उन्होंने अपनी 'प्रतिनिधि-प्रेम-पुष्पाञ्जलि" पढी।
दरशन शुभ पाये। धन्य भाग इन नयननु के जो लखि तुमकों सरसाये ।। जैसी कानन सुनी सुखद सुचि सुन्दर कोतिं तुम्हारी। सो सब आज आपु हम देखो परम पुनीत पियारी ।।