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पं० सत्यनारायण कविरत्न चितवत नित चकोर से तुमको लखि पावत आनन्द । तिनको तुम नित नये जरावत भले भये ब्रजचन्द ।
इत्यादि ता. २०१९।१६ को सत्यनारायणजी ने निम्नलिखित पत्र आगरा निवासी अपने मित्र श्रीयुत विश्वेश्वरदयाल चतुर्वेदी के पास भेजा था। चतुर्वेदीजी उस समय मध्य प्रदेश मे थे ।
आगरा
२० । ।१६ भगवन,
नमोनमः
प्रथम पत्र पुनः कृपा-कार्ड प्राप्त हुआ। आप सब जानते है इसलिये क्षमा मांगने का प्रयोजन नही है। आपको अमरावती जाना पड़ा था और यहाँ xxx जाना पड़ा था ! आपने झरनो का दर्शन किया और यहाँ झरनो को निर्झरित किया है | कैसा विचित्र साम्य | इस सबके सब दुःख को वर्षां देखती है; किन्तु निस्सहाय की भाँति चपल नयनो को चुरा लेती है । जानती है किन्तु अपने कामो को रोक नहीं सकती। इसलिये "बापुरी" है। जाना था उसे सहृदया किन्तु निकली जड़ की जड़ । इसलिये "वापुरी' है । जो दूसरों के दु:ख के साथ दुःखित नहीं हो सकती उसकी दशा pitiable *है । इसलिये “बापुरी" है | विचारी आँसू बहाती हुई नाचार है इसलिये "वापुरी" है। x x x x x xx x। कभी प्यारे घनश्याम से किसी गोपी ने कुछ पूछा था।
x x x उस जले-जलाये ने उसे "बापुरी" कहकर उत्तर दिया होगा-xx x। बतलाइये, यह सब कुछ क्यों हो गया ? क्या जानबूझकर बन गये ? या ऐसी अवस्था का प्रलयोन्मुखी होना अवश्यम्भावी है ?
*pitiable का अर्थ है करुणा की पात्र-लेखक ।